षटरस जीवन
एक अतुकान्त काव्य रचना …
* षटरस जीवन *
—
जो परम्परानुसार परस्पर मिलनें के कारण
इस पवित्र पृथ्वी पर पदार्पण कर
प्राणी को माता पिता के पद पर
प्रतिष्ठित करते हैं
उन्हे ‘शिशु’ कहते हैं ।
जो परम्पराओँ का पालन न करके ं
पवित्र मन से
परम्पराओँ से खेलते
और क्रीड़ा करते हैं
उन्हें ‘बच्चे’ कहते हैं ।
जो परम्परागत तरीकों से
परम्पराओँ को सीखने और समझने की
परम्परा का पालन करते हैं
उन्हें ‘किशोर’ कहते हैं ।
जो परम्पराओँ को भोगते हैं
तोड़ते हैं
और फिर किसी परम्परा को अपना कर उसे
निभाने लगते हैं
उन्हें ‘युवक’ कहते हैं ।
जो परम्पराओँ में पिघलकर
ढलकर
स्वयं एक परम्परा बन जाते हैं
उन्हें ‘प्रौढ’ कहते हैं ।
जो परम्परावत पृथ्वी से
पलायन की प्रतीक्षा करते हैं
उन्हें ‘वृद्ध’ कहते हैं ।
जो इन परम्पराओँ के
षटरसों को चखते हुए
परम्परा निभा जाती है
उसे ‘जिन्दगी’ कहते हैं ।
हाँ !
जीवन एक ‘षटरसी परम्परा’ है ।
—
महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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