अध्यात्म की तपोभूमि
अध्यात्म की तपो भूमि पर बनी खड़ी हैं महल अटारी
ज्ञान प्रकाश पर भारी है मोह लोभ की निशा अंधियारी
जो आत्म वोध के मार्ग बताते, स्वयं अनभिज्ञ क्यों हो जाते
पद लालच या धन लिप्सा में , जाने फिर क्यों उलझ ही जाते
चलते-चलते मार्ग सही जाती क्यों मति उनकी मारी
शब्द संहिता आचरण खो जाता , चारित्र अथाह धूमिल हो जाता
आगे आने की होड़ लगता , नियम व्यवहार सब भूल ही जाता
जैसे पशु कोई बौराया ऐसे दिखती चाहत की मारा-मारी
तू स्त्री निम्न मैं श्रेष्ठ पुरूष हूँ, मैं ही सृष्टि का सही उत्कर्ष हूँ
खो देता मानसिक संतुलन, कहता स्त्री का मैं ही हर्ष हूँ
हाय विडम्बना अहंकार की, सोये विवेक पर पड़ती भारी
तू स्त्री निम्न मैं श्रेष्ठ पुरूष हूँ, मैं ही सृष्टि का सही उत्कर्ष हूँ
खो देता मानसिक संतुलन, कहता स्त्री का मैं ही हर्ष हूँ
हाय विडम्बना अहंकार की, सोये विवेक पर पड़ती भारी