श्रृद्धा सुमन : महाकवि माखनलाल चतुर्वेदी
श्री माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई नामक स्थान पर दिनांक 4 अप्रेल 1889 को हुआ था।इनके पिता का नाम नन्दलाल चतुर्वेदी था जो गाँव के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे। प्राइमरी शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत ,बंगला ,अंग्रेजी ,गुजरती आदि भाषाओँ का ज्ञान प्राप्त किया।
आपका देहावसान दिनांक 30 जनवरी 1968 को भोपाल में हुआ।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अनेक महापुरुषों ने राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपने बहुआयामी व्यक्तित्व और कालजयी कृतित्व की छाप छोड़ी है। ऐसे महापुरुषों में दादा माखनलाल चतुर्वेदी का नाम बड़े आदरपूर्वक लिया जाता है।
वे सुधी चिंतक, सुकवि और प्रखर पत्रकार होने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम के सेनापतियों में से एक थे और सच्चे अर्थों में संपूर्ण मानव थे। उनकी मुकम्मल पहचान ‘एक भारतीय आत्मा’ के रूप में है, जो सर्वथा सटीक भी है।
माखनलाल चतुर्वेदी को भली-भाँति जानने-पहचानने के लिए तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र को जानना भी जरूरी है। यह वो समय था जब भारतीय जनमानस में आजाद होने की तमन्ना गहरे तक पैठ चुकी थी। लोकमान्य तिलक का उद्घोष- ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ बलिपंथियों का प्रेरणास्रोत बन चुका था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग कर कर्मवीर मोहनदास करमचंद गाँधी का राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में आगमन हो चुका था।
आर्थिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी का मार्ग चुना गया था, सामाजिक सुधार के अभियान गतिशील थे और राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता की चाह के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता इस सबको प्रखर अभिव्यक्ति प्रदान कर रही थी। इसी परिवेश में राष्ट्रीय क्षितिज पर माखनलाल चतुर्वेदी रूपी जाज्वल्यमान नक्षत्र का उदय हुआ।
माधवराव सप्रे के ‘हिन्दी केसरी’ ने सन् 1908 में ‘राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार’ विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया। खंडवा के युवा अध्यापक माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध प्रथम चुना गया। माधवराव सप्रे मध्यप्रांत में होनहार प्रतिभाओं की पहचान कर उन्हें आगे बढ़ाने, राष्ट्रीय आंदोलन के लिए कार्यकर्ता तैयार करने और पत्रकारिता एवं पत्रकारों को संस्कारित करने वाले मनीषी के रूप में समादृत रहे हैं। सप्रेजी को माखनलाल चतुर्वेदी की लेखनी में अपार संभावनाओं से युक्त पत्रकार-साहित्यकार के दर्शन हुए। उन्होंने माखनलालजी को इस दिशा में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित किया। यद्यपि अपने युग की हिन्दी संसार की इन दो महान हस्तियों का प्रथम सम्मिलन 1911 में हो पाया, तथापि उनके बीच गुरु-शिष्य का नाता तब तक पनप चुका था।
अप्रैल 1913 में खंडवा के हिन्दी सेवी कालूराम गंगराड़े ने मासिक पत्रिका ‘प्रभा’ का प्रकाशन आरंभ किया, जिसके संपादन का दायित्व माखनलालजी को सौंपा गया। सितंबर 1913 में उन्होंने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए। इसी वर्ष कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ने साप्ताहिक ‘प्रताप’ का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। (‘प्रताप’ कुछ वर्ष बाद दैनिक हो गया था।) 1916 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलालजी ने विद्यार्थीजी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाकात की। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने यहीं अपने काव्यादर्श ‘एक भारतीय आत्मा’ को पहचाना।
स्वतंत्रता संग्राम में उनकी तेजस्वी-ओजस्वी भागीदारी के अलावा माखनलालजी को जानने के तीन माध्यम हैं। (महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन् 1920 के ‘असहयोग आंदोलन’ में महाकोशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन् 1930 के ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला।) उनके महान कृतित्व के तीन आयाम हैं : एक, पत्रकारिता- ‘प्रभा’, ‘कर्मवीर’ और ‘प्रताप’ का संपादन। दो- माखनलालजी की कविताएँ, निबंध, नाटक और कहानी। तीन- माखनलालजी के अभिभाषण/ व्याख्यान।
4 अप्रैल 1925 को जब खंडवा से माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘कर्मवीर’ का पुनः प्रकाशन किया तब उनका आह्वान था, ‘आइए, गरीब और अमीर, किसान और मजदूर, उच्च और नीच, जित और पराजित के भेदों को ठुकराइए। प्रदेश में राष्ट्रीय ज्वाला जगाइए और देश तथा संसार के सामने अपनी शक्तियों को ऐसा प्रमाणित कीजिए, जिसका आने वाली संतानें स्वतंत्र भारत के रूप में गर्व करें।’
इसी अग्रलेख के अंतिम वाक्य से उनके निरभिमानी व्यक्तित्व व सोच का परिचय मिलता है, और कदाचित यही उनके संपादन की सबसे बड़ी शक्ति भी थी, ‘प्रभु करे सेवा के इस पथ में मुझे अपने दोषों का पता रहे और आडंबर, अभिमान और आकर्षण मुझे पथ से भटका न पाए।’ किसानों की दुर्दशा, उनका संगठित शक्ति के रूप में खड़े न होना और इस वजह से उनके कष्टों और समस्याओं की अनदेखी करना माखनलालजी को बेचैन करता था।
‘ कर्मवीर’ के 25 सितंबर 1925 के अंक में वे लिखते हैं- ‘उसे नहीं मालूम कि धनिक तब तक जिंदा है, राज्य तब तक कायम है, ये सारी कौंसिलें तब तक हैं, जब तक वह अनाज उपजाता है और मालगुजारी देता है। जिस दिन वह इंकार कर दे उस दिन समस्त संसार में महाप्रलय मच जाएगा। उसे नहीं मालूम कि संसार का ज्ञान, संसार के अधिकार और संसार की ताकत उससे किसने छीन कर रखी है और क्यों छीन कर रखी है। वह नहीं जानता कि जिस दिन वह अज्ञान इंकार कर उठेगा उस दिन ज्ञान के ठेकेदार स्कूल फिसल पड़ेंगे, कॉलेज नष्ट हो जाएँगे और जिस दिन उसका खून चूसने के लिए न होगा, उस दिन देश में यह उजाला, यह चहल-पहल, यह कोलाहल न होगा।
फौज और पुलिस, वजीर और वाइसराय सब कुछ किसान की गाढ़ी कमाई का खेल है। बात इतनी ही है कि किसान इस बात को जानता नहीं, यदि उसे अपने पतन के कारणों का पता हो, और उसे अपने ऊँचे उठने के उपायों का ज्ञान हो जाए तो निस्संदेह किसान कर्मपथ में लग सकता है।’
माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदान का एक परिचय उर्दू के नामवर साहित्यकार रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ की इस टिप्पणी से मिलता है- ‘उनके लेखों को पढ़ते समय ऐसा मालूम होता था कि आदिशक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिन्दी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई। मुझ जैसे हजारों लोगों ने अपनी भाषा और लिखने की कला माखनलालजी से ही सीखी।’
माखनलाल चतुर्वेदी ने ही मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित कराया था कि ‘साहित्यकार स्वराज्य प्राप्त करने के ध्येय से लिखें।’ नागपुर विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए (2-12-1934) माखनलालजी ने साहित्य के संदर्भ में अपनी अवधारणा स्पष्ट की थी- ‘लोग साहित्य को जीवन से भिन्न मानते हैं, वे कहते हैं साहित्य अपने ही लिए हो। साहित्य का यह धंधा नहीं कि हमेशा मधुर ध्वनि ही निकाला करे… जीवन को हम एक रामायण मान लें। रामायण जीवन के प्रारंभ का मनोरम बालकांड ही नहीं किंतु करुण रस में ओतप्रोत अरण्यकांड भी है और धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलित लंकाकांड भी है।’
1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ माखनलालजी को ‘हिम किरीटिनी’ पर दिया गया था। 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार दादा को ‘हिमतरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया। ‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। 10 सितंबर 1967 को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया।
16-17 जनवरी 1965 को मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटसकर और मुख्यमंत्री पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा हिन्दी के अग्रगण्य साहित्यकार-पत्रकार इस गरिमामय समारोह में उपस्थित थे। तब मिश्रजी के उद्गार थे- ‘सत्ता, साहित्य के चरणों में नत है।’ सचमुच माखनलालजी के बहुआयामी व्यक्तित्व और कालजयी कृतित्व की महत्ता सत्ता की तुलना में बहुत ऊँचे शिखर पर प्रतिष्ठित है और सदैव रहेगी।
प्रकाशित कृतियाँ
हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूँजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं। कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पाँव, अमीर इरादे :गरीब इरादे आदि आपकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का नाम भारत के विख्यात पत्रकार,कवि और स्वतंत्रता सेनानी, श्री माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर रखा गया है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित विश्वविद्यालय के निर्माण के पीछे मुख्य उद्देश्य देश में मास मीडिया के क्षेत्र में बेहतर शिक्षण और प्रशिक्षण। मध्यप्रदेश विधानसभा की धारा १५ के तहत १९९० में विश्वविद्यालय की नींव पड़ी। जिसे यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने भी सहमति प्रदान की है।
उनकी लिखी रचनाएं :
पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊं,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊं,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक
वरदान या अभिशाप?
कौन पथ भूले, कि आए
स्नेह मुझसे दूर रहकर
कौन से वरदान पाए?
यह किरन-वेला मिलन-वेला
बनी अभिशाप होकर,
और जागा-जग, सुला
अस्तित्व अपना पाप होकर;
छलक ही उट्ठे, विशाल !
न उर-सदन में तुम समाए।
उठ उसांसों ने, सजन,
अभिमानिनी बन गीत गाये,
फूल कब के सूख बीते,
शूल थे मैंने बिछाये।
शूल के अमरत्व पर
बलि फूल कर मैंने चढ़ाये,
तब न आये थे मनाये
कौन पथ भूले, कि आये
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको
बोल-बोल में बोल उठी मन की चिड़िया
नभ के ऊंचे पर उड़ जाना है भला-भला
पंखों की सर-सर कि पवन की सन-सन पर
चढ़ता हो या सूरज होवे ढला-ढला
यह उड़ान, इस बैरिन की मनमानी पर
मैं निहाल, गति स्र्द्ध नहीं भाती मुझको।
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।
सूरज का संदेश उषा से सुन-सुनकर
गुन-गुनकर, घोंसले सजीव हुए सत्वर
छोटे-मोटे, सब पंख प्रयाण-प्रवीण हुए
अपने बूते आ गये गगन में उतर-उतर
ये कलरव कोमल कण्ठ सुहाने लगते हैं
वेदों की झंझावात नहीं भाती मुझको।
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।
जीवन के अरमानों के काफिले कहीं, ज्यों
आंखों के आंगन से जी घर पहुंच गये
बरसों से दबे पुराने, उठ जी उठे उधर
सब लगने लगे कि हैं सब ये बस नये-नये
जूएं की हारों से ये मीठे लगते हैं
प्राणों की सौ सौगा़त नहीं भाती मुझको।
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।
ऊषा-संध्या दोनों में लाली होती है
बकवासनि प्रिय किसकी घरवाली होती है
तारे ओढ़े जब रात सुहानी आती है
योगी की निस्पृह अटल कहानी आती है।
नीड़ों को लौटे ही भाते हैं मुझे बहुत
नीड़ो की दुश्मन घात नहीं भाती मुझको।
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।