श्रृंगार दर्शन
मैं चाहु भी तो वो अल्फाज न लिख पाऊं
तेरे रुप की छवि का जज्बात न लिख पाऊं
इतना बैइंतहा खो गया तेरे नैनों में
तेरे सँवरनें का श्रृंगार न लिख पाऊं।
तेरे बालपन का रुप निहारू
जैसा देखा वैसा दिल में उतारु
पुनम का चांद कपाल पर सुशोभित जैसे
मुकुट जडीत हीरे सब रंग चमकाय
कुंडल कानों के लटके ऐसे
हर गोपी जिन पर मर जाय
वो मुस्काती मासुम सी हँसी तेरी
देख देख भी जीया न भर पाय
छलकत है आँसु मेरे ऐसे
कैसे तुझसें दुर रहा जाय।