श्री श्रीचैतन्य महाप्रभु
‘जिन चैतन्य महाप्रभु ने उत्कृष्ट और परम उज्ज्वल रसमयी भक्ति सम्पत्ति वितरण के लिये कलियुग में कृपापूर्वक अवतार लिया है। वे स्वर्ण कान्तिवाले शचीनन्दन हरि हमारे हृदय में स्फूर्ति-लाभ करें।’ —विदग्ध माघव
महाप्रभु चैतन्य देव अभिनव कृष्ण मध्यकालीन भारत की परम दिव्य विभूति थे, कृष्ण भक्ति के कल्पवृक्ष थे। उन्होंने असंख्य प्राणियों को हरिनाम संकीर्तन-सुधा से प्रमत्त कर भवसागर की उत्ताल तरंगों से पार कर भक्ति प्रदान की। नीलाचल-पुरीधाम उनके पुण्य और दिव्य ऐश्वर्य से वृन्दावन में रूपान्तरित हो गया। बडे-बडे सन्त महात्मा, विद्वान, वेदान्ती, शास्त्र महारथी तथा ऐश्वर्यशाली शासको और महापुरुषो ने उनकी चरणधूलि से अपने मस्तक का श्रृंगार कर उनकी कृपा से अपने आप को परम कृतार्थ, धन्य और सफल कर भगवान की निष्काम और परमशुद्ध भक्ति कमायी।
जिस समय चैतन्य का प्रादुर्भाव हुआ उस समय देश की राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक दशा में अराजकता, अनाचार और अशान्ति का विशेष समावेश था। दिल्ली के सिंहासन पर बहलोल लोदी और उसके उत्तराधिकारी सिकंदर लोदी की राजसत्ता का रूप शिथिल और विकृत होता जा रहा था। विदेशी आक्रमण की आशंका प्रतिक्षण थी। विजयनगर और मेवाड़ दोनों विदेशी राजसत्ता को बाहर निकालने की विशेष चेष्टा कर रहे थे। उड़ीसा में गजपति प्रतापरुद्र का एकच्छ साम्राज्य था, गौड में हुशैनशाह की तूती बोल रही थी। नदिया में उसी की शासन सत्ता थी। धार्मिक स्थिति भी बिगडती जा रही थी, अनेक मत-मतान्तरों का प्रकोप बढता ही जा रहा था, देश बौद्ध धर्म के विशेष यानो से तथा तांत्रिक उपासनागत विवेकशून्य धार्मिक आचार-विचार से उत्पीड़ित था। सामाजिक अशान्ति बाड़ पर थी। कहीं-कही वैष्णव भक्ति-पद्धति की शान्तिपूर्ण किरण फैल रही थी। गौड़ देश में श्री राधाकृष्ण की लीला संबंधी गान गाये जा रहे थे। कनीभट्ट और चण्डीदास के भक्तिपूर्ण गीतो से जनता का मानसिक स्तर समुत्थित हो रहा था। ऐसे विचित्र समय में नव्य न्याय के महानगर नदिया-नवद्वीपधाम में श्रीचैतन्य देव का एक परम पवित्र ब्राह्मण कुल में आविर्भाव हुआ। उन्होने कृष्णभक्ति के अमृत सागर में केवल गौड़ बगाल ही नहीं, समस्त भरतखण्ड को संप्लावित कर भागवतरस का दान दिया। चैतन्य के पहले बंगाल को महावैष्णव माघवेन्द्रपुरी–’भक्तिचन्द्रोदय’ का आशीर्वाद मिल चुका था। वे आदि वैष्णव गौडीय आचार्य स्वीकार किये जाते है, चैतन्य का पथ उन्होने पहले से ही प्रशस्त कर दिया।
महाप्रभु चैतन्य देव ने धर्म के नाम पर प्रचलित पाखण्डो का अन्त कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। असंख्य प्राणियो ने श्रीकृष्ण चैतन्य की शरण लेकर अपना जीवन सफल और कृतार्थ कर लिया। रूप सनातन जैसे विषय भोग में आसक्त ऐश्वर्य- मदोन्मत्त प्राणी ने सांसारिक सुख-साम्राज्य पर लात मार कर, प्रकाशानन्द और सार्वभौम भट्टाचार्य जैसे अद्वैत सिद्धान्ती वेदान्ती ने ब्रह्मानन्द की उपेक्षा कर, नित्यानन्द जैसे परमहंस और अवधूत ने विरक्तिवृत्ति भूल कर चैतन्य महाप्रभु के चरणों की ज्योति गंगा में स्नान कर परम दिव्य कृष्णभक्ति का रसास्वादन किया। रूपगोस्वामी ने महाप्रभु का स्तवन किया कि जो पृथ्वी पर उदित होकर द्विजराज की स्थिति में रहते हुए निज प्रेमरसामृत का वितरण कर रहे है और अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश कर रहे है वे ही सम्पूर्ण जगत के मन को वश में करने वाले शचीनन्दन चैतन्यचन्द्र हम लोगों का कल्याण करें। चैतन्य राधाकृष्ण के एकीभाव स्वरूप थे। उनका
प्राकट्य सर्वथा शास्त्रसम्मत स्वीकार किया जाता है। अनन्तसंहिता, बृहन्नारदपुराण, भविष्य पुराण, देवी पुराण, स्कन्द पुराण, मार्कण्डेय पुराण, पद्मपुराण, कापिल तन्त्र और विश्वसार तन्त्र आदि में यह उल्लेख है कि भागीरथी के तट पर नवद्वीप में द्विजकुल में कृष्ण चैतन्य का आविर्भाव होगा। चैतन्य महाप्रभु ने भक्तियोग और सन्यास आश्रम का आश्रय लेकर हरिनामसंकीर्तनमाधुरी से थोड़े समय के लिये कलियुग को द्वापर में रूपान्तरित कर दिया। वे श्री राधाकृष्ण की दिव्य कान्ति और रूप-माधुरी तथा ललित रसमयी लीला का ही अनुभव किया करते थे। महाप्रभु चैतन्य देव की जीवन कथा का अधिकांश उनके समकालीन सन्तों, महात्माओ और भक्तो की वाणी का अमित प्रासादिक मांगलिक प्रतीक है। उनकी जीवन कथा की प्रामाणिकता का मूलाधार तत्कालीन रचनाओं का आँखों देखा वर्णन है। वृन्दावनदास कृत चैतन्य भागवत, चैतन्यमंगल, चैतन्य चरितामृत, चैतन्य-चरित, चैतन्य चन्द्रोदय आदि ग्रन्थ उनकी जीवन कथा के अक्षर-सूत्र है। मुरारिगुप्त का चैतन्य चरितामृत भी इस दिशा में एक सुन्दर प्रयत्न है । कविकर्णपूर के चैतन्य चन्द्रोदय में भी पर्याप्त विवरण मिलता है । चैतन्य के लीला प्रवेश के पन्द्रह साल बाद वृन्दावनदास ने चैतन्य भागवत की रचना की। उन्होने नित्यानंद की आज्ञा से इस पवित्र ग्रन्थ का निर्माण किया। कवि की उक्ति है-
‘नित्यानन्द स्वरूपेर आज्ञा धरि।
सूत्र मात्र लिखि आमि कृपा अनुसारे ।’
कृष्णदास कविराज ने चैतन्य चरितामृत लिखा। उन्होने चैतन्य को केवल राधाकृष्ण का अवतार ही नहीं, एक परम रसिक भक्त और महान धर्माचार्य भी स्वीकार किया। जगदबंधु कृत गोटपादतर गिणी में भी उनके जीवन चरित्र का वृतान्त मिलता है। नरहरि ठाकुर ने उनको विशेष रूप से राधा-भाव में चित्रित किया है, उनका कथन है-
‘गौराङ्ग टेकिला पाके भावेर आवेशे राधा-राधा बलि डाके ।’
श्रीचैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य शक संवत् १४०७ की फाल्गुन शुक्ला १५ को, दिन के समय सिंहलग्न में पश्चिमी बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम मे हुआ था। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शचीदेवी था । ये भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। इन्हे लोग श्रीराधा का अवतार मानते है। बङ्गाल के वैष्णव तो इन्हे साक्षात् पूर्ण ब्रह्म ही मानते हैं। इनके जीवन के अन्तिम छः वर्ष राधाभाव मे ही बीते। उन दिनो इनके अंदर महाभाव के सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय ये श्रीकृष्ण के विरह मे उन्मत्त होकर रोने और चीखने लगते थे, उस समय पत्थर का हृदय भी पिघल जाता था। इनके व्यक्तित्व का लोगो पर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा कि श्री वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे अद्वैत वेदान्ती भी इनके थोडी देर के सङ्ग से श्रीकृष्ण प्रेमी बन गये। यही नहीं, इनके विरोधी भी इनके भक्त बन गये और जगाई-मधाई जैसे महान् दुराचारी भी संत बन गये। कई बडे-बडे संन्यासी भी इनके अनुयायी हो गये। यद्यपि इनका प्रधान उद्देश्य भगवद्भक्ति और भगवन्नाम का प्रचार करना और जगत् मे प्रेम और शान्ति का साम्राज्य स्थापित करना था, तथापि इन्होने दूसरे धर्मों और दूसरे साधनो की कभी निन्दा नहीं की। इनके भक्ति सिद्धांत मे द्वैत और अद्वैत का बड़ा सुन्दर समन्वय हुआ है। इन्होने कलिमलग्रसित जीवो के उद्धार के लिये भगवन्नाम के जप और कीर्तन को ही मुख्य और सरल उपाय माना है। इनकी दक्षिण-यात्रा मे गोदावरी के तट पर इनका इनके शिष्य राय रामानन्द के साथ बड़ा विलक्षण संवाद हुआ, जिसमे इन्होने राधाभाव को सबसे ऊँचा भाव बतलाया। चैतन्य महाप्रभु ने संस्कृत में आठ श्लोकों की रचना की जिन्हें शिक्षाष्टक कहा जाता है। उन्होने अपने शिक्षाष्टक मे अपने उपदेशो का सार भर दिया है इन परम मूल्यवान प्रार्थनाओं का यहाँ अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है–
★. चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं श्रेय कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।।
“भगवान् श्रीकृष्ण के नाम और गुणों का कीर्तन सर्वोपरि है, उसकी तुलना में और कोई साधन नहीं ठहर सकता। वह चित्तरूपी दर्पण को स्वच्छ कर देता है, संसार रूपी घोर दावानल को बुझा देता है, कल्याण रूपी कुमुदको अपने किरण-जाल से विकसित करने वाला तथा आनन्द के समुद्र को बड़ा देने वाला चन्द्रमा है, विद्या रूपिणी वधू को जीवन देने वाला है, पद-पद पर पूर्ण अमृत का आस्वादन कराने वाला तथा सम्पूर्ण आत्मा को शान्ति एवं आनन्द की धारा में डुबा देनेवाला है।
★. “भगवन्! आपने अपने अनेकों नाम प्रकट करके उनमें अपनी सम्पूर्ण भागवती शक्ति डाल दी उन्हे अपने ही समान सर्वशक्तिमान् बना दिया और उन्हें स्मरण करने का कोई समय विशेष भी निर्धारित नहीं किया— हम जब चाहे तभी उन्हें याद कर सकते हैं। प्रभो!आपकी तो इतनी कृपा है, परंतु मेरा दुर्भाग्य भी इतना प्रबल है कि आपके नाम स्मरण मे मेरी रुचि— मेरी प्रीति नहीं हुई।”
★. तिनके से भी अत्यन्त छोटा, वृक्ष से भी अधिक सहनशील, स्वयं मान रहित किंतु दूसरों के लिये मानप्रद बनकर भगवान् श्रीहरि का नित्य निरन्तर कीर्तन करना चाहिये।
★. हे जगदीश्वर! मुझे न धनबल चाहिये न जनबल, न सुन्दरी स्त्री और न कवित्व शक्ति अथवा सर्वज्ञत्व ही चाहिए। मेरी तो जन्म-जन्मान्तर मे आप परमेश्वर के चरणो मे अहैतुकी भक्ति—अकारण प्रीति बनी रहे।
★. अहो, नन्दनन्दन! घोर संसार में पढ़े हुए मुझ सेवक को कृपा पूर्वक अपने चरण-कमलो मे लगे हुए एक रज कण के तुल्य समझ लो।
★. प्रभो! वह दिन कब होगा, जब तुम्हारा नाम लेने पर मेरे नेत्र निरन्तर बहते हुए ऑसुओ की धारा से सदा भीगे रहेंगे, मेरा कण्ठ गद्गद हो जानेके कारण मेरे मुख से रुक-रुककर वाणी निकलेगी तथा मेरा शरीर रोमाञ्च से व्याप्त हो जायगा।
★. अपनी चरण सेवा में रत, चाहे वे मेरा आलिंगन करे या पीस डाले, मेरे नयनो के सामने से चाहे ओझल होकर मुझे मर्माहत करे, जो इच्छा हो वही करे, पर है हमारे प्राणनाथ वे हरि ही, दूसरा कोई नही है।
श्रीचैतन्य भगवन्नाम के बडे ही रसिक, अनुभवी और प्रेमी थे। इन्होने बतलाया है—
“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥”
‘यह महामन्त्र सबसे अधिक लाभकारी और भगवत्प्रेम को बढाने वाला है। भगवन्नाम का बिना श्रद्धा के उच्चारण करने से भी मनुष्य संसार के दुखो से छूटकर भगवान् के परम धाम का अधिकारी बन जाता है।’
श्रीचैतन्य महाप्रभु ने हमे यह बताया है कि भक्तों को भगवन्नाम के उच्चारण के साथ दैवी सम्पत्ति का भी अर्जन करना चाहिये। दैवी सम्पत्ति के प्रधान लक्षण उन्होंने बताये हैं— दया, अहिंसा, मत्सरशून्यता, सत्य, समता, उदारता, मृदुता, शौच, अनासक्ति, परोपकार, समता, निष्कामता, चित्त की स्थिरता, इन्द्रियदमन युक्ताहारविहार, गम्भीरता, पर दुःख कातरता, मैत्री, तेज, धैर्य इत्यादि। श्री चैतन्य महाप्रभु आचरण की पवित्रता पर बहुत जोर देते थे। उन्होने अपने सन्यासी शिष्यों के लिये यह नियम बना दिया था कि कोई स्त्री से बात तक न करे। एक बार इनके शिष्य छोटे हरिदास ने माधवी नाम की एक वृद्धा स्त्री से बात कर ली थी, जो स्वयं महाप्रभु की भक्त थी। केवल इस अपराध के लिये उन्होंने हरिदास का सदा के लिये परित्याग कर दिया यद्यपि उनका चरित्र सर्वथा निर्दोष था।
श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम मे रहे। इनका नाम ‘निमाई’ पण्डित था, ये न्याय के बड़े पण्डित थे। इन्होने न्यायशास्त्र पर एक अपूर्व ग्रंथ लिखा था, जिसे देखकर इनके एक मित्रको बडी ईर्ष्या हुई क्योंकि उन्हें यह भय हुआ कि इनके ग्रन्थ के प्रकाश मे आने पर उनके ग्रन्थ का आदर कम हो जायगा। इस पर श्रीचैतन्य ने अपने ग्रन्थ को गङ्गाजी मे बहा दिया। कैसा अपूर्व त्याग है । पहली पत्नी लक्ष्मीदेवी का देहान्त हो जाने के बाद इन्होने दूसरा विवाह श्रीविष्णुप्रिया जी के साथ किया था । परंतु कहते हैं, इनका अपनी पत्नी के प्रति सदा पवित्र भाव रहा। चौबीस वर्ष की अवस्था में इन्होने केशव भारती नामक सन्यासी महात्मा से सन्यास की दीक्षा ग्रहण की। इन्होने सन्यास इसलिये नहीं लिया कि भगवत प्राप्ति के लिये सन्यास लेना अनिवार्य है, बल्कि इनका उद्देश्य काशी आदि तीर्थो के सन्यासियो को भक्ति मार्ग मे लगाना था। बिना पूर्ण वैराग्य हुए ये किसी को सन्यास की दीक्षा नहीं देते थे। इसीलिये इन्होने पहली बार अपने शिष्य रघुनाथदास को संन्यास लेने से मना किया था।
इनके जीवन मे अनेको अलौकिक घटनाएँ हुई, जो किसी मनुष्य के लिये सम्भव नहीं और जिनसे इनका ईश्वरत्व प्रकट होता है। इन्होने एक बार श्री अद्वैतप्रभु को विश्वरूप का दर्शन कराया था तथा नित्यानन्दप्रभु को एक बार शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, शार्ङ्गधनुष तथा मुरली लिये हुए षड्भुज नारायण के रूप मे, दूसरी बार दो हाथों में मुरली और दो हाथो मे शङ्ख-चक्र लिये हुए चतुर्भुज रूप मे और तीसरी बार द्विभुज श्रीकृष्ण के रूप मे दर्शन दिया था। इनकी माता शचीदेवी ने इनके अभिन्नहृदय श्रीनित्यानन्द प्रभु और इनको बलराम और श्रीकृष्ण के रूप मे देखा था। गोदावरी के तट पर राय रामानन्द के सामने ये रसराज महाप्रभु (श्रीकृष्ण) और महाभाव (श्रीराधा) के युगल रूप में प्रकट हुए, जिसे देखकर राय रामानन्द अपने शरीर को नहीं सम्हाल सके और मूर्छित होकर गिर पडे। अपने जीवन के शेष भाग मे, जब ये नीलाचल मे रहते थे, एक बार ये बंद कमरे मे से बाहर निकल आये थे। उस समय इनके शरीर के जोड़ खुल गये, जिससे इनके अवयव बहुत लंबे हो गये । एक दिन इनके अवयव कछुए के अवयवों की भाँति सिकुड़ गये और ये मिट्टी के लोंधै के समान पृथ्वी पर पड़े रहे। इसके अतिरिक्त इन्होने कई साधारण चमत्कार भी दिखलाये। उदाहरणतः श्रीचैतन्य चरितामृत में लिखा है कि इन्होने कई कोढ़ियो और अन्य असाध्य रोगो से पीड़ित रोगियों को रोग मुक्त कर दिया। दक्षिण में जब ये अपने भक्त नरहरि सरकार ठाकुर के गॉव श्रीखण्ड में पहुँचे, तब नित्यानन्दप्रभु को मधु की आवश्यकता हुई। इन्होने उस समय एक सरोवर के जल को शहद के रूप मे पलट दिया, जिससे आज तक वह तालाब मधुपुष्करिणी के नाम से विख्यात है। इनके उपदेशों और चरित्रो का प्रभाव आज भी लोगों पर खूब है।
श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रधान-प्रधान अनुयायियों के नाम है— श्रीनित्यानन्दप्रभु, श्रीअद्वैतप्रभु, राय रामानन्द, श्रीरूपगोस्वामी, श्रीसनातन गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट, श्रीजीव गोस्वामी, गोपालभट्ट, रघुनाथदास, हरिदास साधु और नरहरि सरकार ठाकुर ।
श्रीचैतन्य महाप्रभु का जीवन प्रेम-मय है, उसे जानने के लिये अंग्रेजी की Lord Gourang ओर बङ्गला के श्री चैतन्य-चरितामृत, श्रीचैतन्य-भागवत और अमिय-निमाई चरित तथा हिन्दी के श्रीचैतन्य चरितावली नामक ग्रंथों को पढ़ना चाहिये।
|| जय श्रीहरि ||