श्री भूकन शरण आर्य
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संस्मरण*
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हैदराबाद सत्याग्रह के वीर सेनानी श्री भूकन शरण आर्य
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लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा ,रामपुर ,उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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23 मार्च 2021 को मेरे पास सुमन गर्ग जी का फोन आया । उन्हें मेरा मोबाइल नंबर फेसबुक से प्राप्त हुआ था ।आप स्वर्गीय श्री भूकन शरण आर्य जी की सुपुत्री हैं । चंद सेकंडों में ही मैं आपको पहचान गया। आपने अनेक वर्ष रामपुर में टैगोर शिशु निकेतन में अध्यापन कार्य किया था । इसके बाद आप पंजाब चली गई और वहां “केंद्रीय विद्यालय” में अध्यापक नियुक्त हुईं। मालूम हुआ कि बहुत अच्छी सेवाएं देते हुए आपने कुछ समय पूर्व स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी । आपकी गौरवशाली अध्यापन कार्य प्रियता को जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। अतीत की स्मृतियां जीवित हो उठीं। चेहरा आंखों के सामने आ गया ।
“मैंने आर्यावर्त-केसरी पाक्षिक हिंदी समाचार पत्र जो अमरोहा से निकलता है, उसमें एक लेख पिताजी के बारे में छपने के लिए दिया है । प्रकाशित होते ही आपको उसकी प्रति भेजना चाहती हूँ। आपने भी पिताजी के संबंध में 7 जुलाई 1989 में उनकी मृत्यु होने के उपरांत बहुत सुंदर श्रद्धांजलि लेख लिखा था । वह मेरे पास अभी तक सुरक्षित है ।”
सुमन गर्ग आर्य जी की बात सुनकर मैंने प्रसन्नता पूर्वक कहा “यह लेख अवश्य पढ़ना चाहूंगा । आप छपने पर भिजवाने की कृपा करें।”
1 अप्रैल 2021 को आपका लेख मुझे मोबाइल पर मिल गया। संपादकीय पृष्ठ पर पत्रिका ने इस लेख को गौरवशाली स्थान दिया था और इस प्रकार यह हैदराबाद सत्याग्रह में रामपुर जनपद के असाधारण ,अभूतपूर्व और एकमात्र योगदान की अविस्मरणीय गाथा बन गई। सुंदर लेख को पढ़कर मुझे श्री भूकन शरण आर्य जी की छवि का पुनः स्मरण हो आया। आपकी तेजस्विता तथा साहसिक जीवन – प्रणाली का अत्यंत सम्मान के साथ पूज्य पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ समय-समय पर स्मरण करते रहते थे । उस स्मरण से ही जो आपकी छवि बनी वह एक देशभक्त, समर्पित योद्धा तथा आदर्शों के साथ जीवन को जीने वाले एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति की बन गई थी।
सुमन गर्ग आर्य जी के आर्यावर्त केसरी में प्रकाशित सुंदर लेख से बहुत सी तथ्यात्मक जानकारियां प्राप्त हुईं। पत्रिका के अनुसार श्री भूकन शरण आर्य का जन्म रामपुर उत्तर प्रदेश के सिमरिया ग्राम में 1923 ईस्वी को हुआ था ।आपके पिताजी का नाम श्री राम प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती चंपा देवी था । आपकी बाल्यावस्था अत्यंत कष्टप्रद रही । पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी तथा इस कारण आपको शिक्षा का अवसर केवल छठी कक्षा तक उपलब्ध हो पाया था । उस पर आपके सम्मुख अपने जीवन-यापन के साथ – साथ दो बहनों का पालन पोषण भी करना था। इतना सब होते हुए भी आपके भीतर भावनाएं हिलोरें मार रही थीं।
जब 1939 में आर्य समाज ने हैदराबाद में राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह आरंभ किया, तब पूरे देश से जत्थे के जत्थे बनकर हैदराबाद पहुंचना शुरू हो गए थे । हैदराबाद में निजाम का शासन बहुत कट्टर ,निरंकुश तथा असहिष्णुता की भावनाओं से भरा हुआ था। हिंदुओं के प्रति संकीर्णता की चरम सीमा यह थी कि निजाम के शासन में “ओम” की ध्वनि का उच्चारण करना तथा ओम का झंडा फहराना प्रतिबंधित कर दिया गया था। साथ ही साथ यज्ञ और हवन पर भी पाबंदी लगा दी गई थी । आर्य समाज स्वतंत्रता का उद्घोषक था । धर्म तथा स्वाभिमान आर्य समाज को प्रिय था । देखते ही देखते विरोध की वह ज्वाला प्रज्वलित हुई ,जिसकी कल्पना भी निजाम ने ओम के झंडे पर प्रतिबंध लगाते समय नहीं की होगी । पूरे देश से जान हथेली पर लेकर हैदराबाद पहुंचने वाले वीर आर्य सेनानी अपने-अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ गए और हैदराबाद के निजाम के सम्मुख एक चुनौती खड़ी हो गई ।
ऐसे ही हजारों – लाखों स्वातंत्र्य वीरों में एक नाम रामपुर के महान सत्याग्रही श्री भूकन शरण आर्य का भी था । 1939 में आपकी आयु केवल 16 वर्ष की थी लेकिन भावनाओं का ज्वार अपने चरम पर था । आप संभवतः रामपुर से हैदराबाद – सत्याग्रह के लिए जेल जाने वाले अकेले सत्याग्रही थे । जब आपकी इच्छा हैदराबाद सत्याग्रह के जत्थे में शामिल होने की हुई और आपने बरेली से उस जत्थे में शामिल होने के लिए रामपुर से प्रस्थान किया तो आपके मन में यह भावना जगी कि मैं अपनी बहन से जो कि आंवला में रहती हैं ,उनसे भी मिल लूं। बहन को पता चला तो वह काँप उठी, क्योंकि निज़ाम के शासन में सत्याग्रहियों के ऊपर होने वाले अत्याचार की खबरें चारों तरफ फैलना शुरू हो गई थीं। बहन ने घर के एक कमरे में आपको कैद कर दिया ताकि आपके जीवन की रक्षा की जा सके । लेकिन भूकन शरण आर्य जी का किशोर मन भारत माता और धर्म के प्रति बलिदान के पथ पर अग्रसर होने के लिए मचल रहा था । आप दरवाजे को खोलकर सरपट बरेली स्टेशन की तरफ दौड़ पड़े । मगर देर हो गई थी । एक जत्था जिसके साथ आप को जाना था ,वह रवाना हो चुका था । परिणामतः आप दूसरे जत्थे में शामिल हो गए ।
जो होना था ,वही हुआ। हैदराबाद के निजाम की निरंकुश सत्ता ने आप को बंदी बना लिया तथा औरंगाबाद की जेल में आपको 6 माह का कठोर कारावास का दंड भुगतना पड़ा । जेल में खाने के नाम पर जो गया-गुजरा भोजन दिया जाता था ,वह इतना अपमिश्रित था कि उसके खाने के कारण आपको पेट में भयंकर प्रकार के रोग हो गए और सारा जीवन आपको उसके कष्ट को झेलना पड़ा । इस तरह किशोरावस्था में ही आपने वीरता का एक ऐसा इतिहास रच दिया था, जिसको याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
व्यवसाय की दृष्टि से आपकी रामपुर में एक छोटी-सी “आर्य साइकिल स्टोर” के नाम से साइकिल की दुकान थी । साधारण आर्थिक हैसियत होते हुए भी आप सारा जीवन स्वाभिमानी चेतना के साथ जीते रहे।
1974 में आप के एकमात्र युवा पुत्र की गंगा में डूबने से मृत्यु हो गई । आपकी सुपुत्री सुमन गर्ग आर्य जी ने भावुक होकर मुझे बताया कि यह 6 जुलाई की हृदय विदारक घटना अर्थात तिथि की दृष्टि से जहां 7 जुलाई भूकन शरण आर्य जी की मृत्यु की तिथि है वहीं 6 जुलाई उनके युवा पुत्र की मृत्यु की तिथि विधाता ने कितने मार्मिक संयोग के साथ निर्धारित कर दी थी । इस असामयिक मृत्यु से श्री भूकन शरण आर्य जी ही क्या ,कोई भी पिता बुरी तरह टूट जाएगा । फिर भी जैसे -तैसे जीवन को जीते रहे ।
आर्य समाज के हैदराबाद सत्याग्रह ने निजाम के शासन की प्रमाणिकता को भीतर से खोखला कर दिया था। पूरे देश ही नहीं अपितु विश्व के समस्त न्यायप्रिय मंचों पर वह अपनी साख खो चुका था । देश में निजाम के शासन के प्रति अलोकप्रियता का भाव था । इसी पृष्ठभूमि में सरदार पटेल ने आजादी के बाद साहसिक सैनिक कार्यवाही के साथ हैदराबाद रियासत को भारत में विलीन करने का गौरवशाली कार्य किया था। इसके लिए आर्य समाज के हैदराबाद सत्याग्रह को श्रेय देना अनुचित नहीं होगा।
कालांतर में सरकार ने हैदराबाद सत्याग्रह के सेनानियों को जब स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने की घोषणा की ,तब श्री भूकन शरण आर्य जी ने औरंगाबाद की जेल यात्रा का प्रमाण-पत्र घर में खोजा । मगर उसे तो दीमक ने खा लिया था । आर्य जी हाथ मलते रह गए । उन्हें उस यात्रा के सहयात्री के तौर पर केवल महाशय कृष्ण ज्योति जी का ही स्मरण आ रहा था । वह भी शायद लाहौर के थे । किसी से कोई सीधा संपर्क भी नहीं था । रामपुर से कोई सत्याग्रही गया होता तो वह गवाही जरूर दे देता ,मगर कोई नहीं था । औरंगाबाद के जेलर को चिट्ठी लिखी । प्रमाण पत्र चाहा मगर भले जेलर ने भी कुछ सवाल – जवाब किए थे और ऐसे में आमने-सामने मिले बिना प्रमाण-पत्र का बन पाना कठिन था । भूकन शरण आर्य जी ने औरंगाबाद जेल में जाने का कार्यक्रम बनाया। जाना लगभग निश्चित हो चुका था किंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। अकस्मात हृदय गति रुक जाने से आप का 7 जुलाई 1989 को देहांत हो गया ।
इतिहास के पृष्ठों पर आपका अमिट बलिदान प्रमाण-पत्र का मोहताज नहीं था। रामपुर की जनता को आपका व्यक्तित्व तथा आपका त्याग – बलिदान मुंह जुबानी याद था । देहांत का समाचार सुनकर आपकी साहसिक देश सेवाओं का स्मरण करते हुए पूज्य पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ ने आप का भाव पूर्वक स्मरण किया था तथा एक बार पुनः आपके जीवन और कार्यो की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी।
उसी समय मैंने एक श्रद्धांजलि लेख भी आप के संबंध में लिखा था जो रामपुर से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक सहकारी युग के 8 जुलाई अंक में प्रकाशित हुआ था ।
वह श्रद्धांजलि लेख इस प्रकार है:-
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साहस की सीमायें तोड़ने वाले भूकन सरन आर्य दुनिया छोड़ चले:
रामपुर – 7 जुलाई – स्वतंत्रता संग्राम के सम्माननीय सेनानी श्री भूकन शरण आर्य का लगभग 67 वर्ष की आयु में अकस्मात दोपहर दो बजे हदय गति रुक जाने से देहान्त हो गया । उनकी शव यात्रा उनके निवास फूटा महल से सायं छह बजे आरम्भ हुई। श्री आर्य के शोक संतप्त परिवार में पत्नी और दो पुत्रियाँ हैं। कोसी शमशान घाट पर चिता को मुखाग्नि उनके भतीजे ने दी । पवित्र और निर्मल अन्तःकरण से युक्त उनकी सात्विक काया अग्नि में समा गई और विगत आधी सदी तक रामपुर के सार्वजनिक जीवन में अपने निडर, निर्भीक और साहसी व्यक्तित्व की छटा बिखेरने वाला ज्योति-पुंज नही रहा।
उनमें असाधारण जीवन-शक्ति थी। उनका साहस लोकसेवा और लोकसुधार के प्रश्न पर दुस्साहस की सीमाओं को छूता था। । वह निस्सन्देह हमारे लोकजीवन में हिन्दुत्व के सर्वाधिक प्रखर और मुखर प्रवक्ता थे । गो-रक्षा का उनके जीवन में विशेष स्थान था और उन्होंने अपनी जान पर खेलकर भी गाय के जीवन की रक्षा को महत्व दिया था।
वह लौह पुरुष थे। आजादी से पहले ही हैदराबाद के निजाम के खिलाफ उन्होंने आर्य समाज द्वारा चलाये गए राष्ट्रव्यापी आंदोलन में रामपुर का नेतृत्व किया था। इसी सिलसिले में वह जेल भी गये ये । दोहरी दासता की बेड़ियों में जकड़े रामपुर को स्वाभिमान और स्वतन्त्रता के मंत्र से जागृति की दीक्षा देने वालों में वह अग्रणी थे। उनको गिनती रामपुर में आर्य समाज और हिन्दू महासभा के उन नींव के पत्थरों में होती है, जिनकी आभा के सामने शिखर की पताकाएँ फीकी पड़ जाती हैं।
आर्य समाज का तेवर और हिन्दू महासभा की उग्रता उनके स्वभाव में जो एक बार आई. तो अन्तिम क्षण तक बनी रही। वह खरी-खरी कहने, सोचने और मानने के आदी थे। हिन्दुत्व के बिना उनके जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती। और क्या यह सच नहीं है कि रामपुर में हिन्दू जनता को उत्साह तथा एकीकरण का जो तीव्र भावप्रवण संप्रेषण आर्य जी से मिला, वह कोटि अब इतिहास की बात बन गई है ?
उनका अन्तिम सार्वजनिक कार्यक्रम रामपुर में किले के मैदान में काँची के शंकराचार्य की धर्मसभा के आयोजन में अथक सहयोग रहा। इस सार्वजनिक मंच से उन्होंने अपार श्रोता समूह के समक्ष स्वरचित कविता का सस्वर पाठ भी किया था । उनकी वाणी का ओज, उसमें घुली मिठास और थोड़ा- सा कड़कदार पुट ! सचमुच उनकी वाणी ही उनके व्यक्तित्व की कई पर्तों को अन्दर – बाहर एक करके दिखा देती थी। उनके पास पारदर्शी मन था, तो उनका चिन्तन व्यक्तिगत स्वार्थ से कोसों दूर था।
एक राजनीतिक नेता के तौर पर उनका जीवन हिन्दू महासभा के गठन और गतिविधियों से शुरू होता है । साथ ही साथ आर्य समाज का सुधारवादी सोच और सही-सही बात पर दृढ़तापूर्वक अडिग रहना उन के रोम-रोम में बस गया था।
बाद में जब हिंदू महासभा रामपुर और साथ-साथ पूरे देश में कमजोर पड़ती गई जिसके अलग कारण हैं तो आर्य जी ने खुद को भारतीय जनसंघ और तदनंतर भारतीय जनता पार्टी को मजबूत बनाने के लिए लगा दिया । एक समय वह जनसंघ के जिला अध्यक्ष भी रहे (सहकारी युग, 8 जुलाई 1989 अंक )