श्री गीता अध्याय तेरह
श्री गीता अध्याय तेरह
बोले श्री भगवान -हे अर्जुन! !
ज्ञानी जन कहते हैं -सुनकर कर ज्ञानार्जन।
यह शरीर है क्षेत्र, जानकार होता क्षेत्रज्ञ।
बोये बीजों के अनुरूप समय पर ज्यों खाद्यान्न मिला करता है ।
वैसे ही संस्कार रूप बीजारोपण का
फल प्राणी को मिलता है ।।
मेरे मत से जान यही कि सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ हूँ मैं ।
अर्थात, सभी जीवों में जीवात्मा तत्व भी हूँ मैं ।।
विकार रहित प्रकृति और पुरुष को तत्व से ले जान।
मेरे मत से यही है, ज्ञानी जन का जानने योग्य ज्ञान ।।
इसी विषय में बतलाता हूँ, संक्षेप में जान ले मुझसे ।
जैसा जो है क्षेत्र विकारों वाला जैसा,जिस भी कारण से।।
वह क्षेत्रज्ञ जो जिस प्रभाव का, है क्यों स्पष्ट करूंगा तुझसे।।
कहा गया ऋषियों द्वारा क्षेत्र ,क्षेत्रज्ञ तत्व विविध प्रकार से।
कहीं वेदमय मंत्र, छंदमय कहीं, युक्तियुक्त, ब्रह्मसूत्र पदों से ।।
कहा गया यह क्षेत्र संक्षेप में ऐसे,पांच महा भूत, अहंकार और बुद्धि।
दस इंद्रियां, एक मन,शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध, पाँचों विषयेन्द्रिय।।
इच्छा,द्वेष, सुख,दुख,स्थूल देह,पिण्ड, चेतना,धृति, क्षेत्र में विकारोन्ति।।
अभाव श्रेष्ठता के अभिमान,दंभाचरण, किसी को नहीं सताने का।
क्षमा सरलता,मन, वाणी की, श्रद्धा,सेवा, गुरु की,निग्रह शरीर का।।
अभाव आसक्ति, अहंकार,दुख का ,दोषों के बार -बार विचार का।
अभाव लोक-परलोक के मोह,जन्म, मृत्यु,जरा,रोग प्रचार का।।
भाव मुझी में अनन्य युक्त से , अव्यभिचारिणी एकनिष्ठ भक्ति का।
स्वभाव एकाग्र,शुद्ध देश, विषय हीन जनसमुदाय से प्रेम का।।
अभाव पुत्र,घर, स्त्री,धन में, ममता और आसक्ति का।
रहे भाव प्रिय-अप्रिय प्राप्ति में, चित्त सम विरक्ति का।।
अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति,है तत्व दृष्टि से यही ज्ञान ।
जो कुछ है विपरीत अन्यथा, सब कुछ वह ही है अज्ञान।।
तेरे योग्य जानने हित परमात्म प्राप्ति के साधन कहता हूँ तुझसे।
परमब्रह्म है जो अनादि,जाना जाता सत से ,नहीं कभी असत से।।
वह तो है सब ओर हस्त,पग,सिर ,मुख,नेत्र, कान वाला।
क्यों कि जग में व्याप्त सभी में, स्थित वह रहने वाला ।।
विषय वेत्ता सब इन्द्रिय का और रहित भी इन्द्रियों से ।
निर्गुण भी निर्भोक्ता भी, सबका धारक निरासक्त वह पोषक भी ।।
ज्यों सूर्य रश्मियों में स्थित जल जान न पाते साधारण जन।
त्यों ही परम उपस्थित जन में, समझ न पाता कोई जग जन।।
*है परमात्मा विभाग रहित आकाश सदृश,
चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त सा दिखता है ज्यों।
धारक,पोषक, विष्णुरूप में, संहारक रुद्र रूप, उत्पत्ति कर्ता ब्रह्मा रूप में परमात्मा होता त्यों ।।*
है माया से परे स्थित हर उर अंदर, ज्योतियों का ज्योति ।
क्षेत्र और ज्ञान तत्व से जान,भक्त मम करते मेरी प्राप्ति ।।
जान अनादि प्रकृति और पुरुष दोनों ही को अर्जुन ।
और प्रकृति से उत्पन्न ज्ञान राग द्वेषादि को भी सुन।।
कार्य कारक उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति।
जीवात्मा की होती सुख दुख भोगने में प्रवृति।।
प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता प्रकृति में ।
और इन्हीं के संग जन्म लेने हित अच्छी-बुरी योनियों वृत्ति में ।।
इस देह में स्थित, आत्मा ही वास्तव में है परमात्मा ।
साक्षी होने से उपदृष्टा ,यथार्थ सम्मति से अनुमन्ता।
धारण पोषण से भर्ता, जोश रूप से भोक्ता।
ब्रह्मादि के स्वामी होने से महेश्वर सच्चिदानन्द परमात्मा ।
प्रकृति, पुरुष को ऐसे ही समझ या कह जीवात्मा, परमात्मा ।।
जो मनुज पुरुष और प्रकृति को जानते हैं,तत्व से।
कर्तव्य करते हुए भी छूट जाते हैं जन्म मृत्यु बंध से ।।
कोई देखे उसको शुद्ध बुद्धि से ध्यान के द्वारा ।
कोई ज्ञान योग देखते कोई कर्म योग के द्वारा ।।
किन्तु जो हैं मंदबुद्धि जन, करें उपासना तत्व ज्ञानी से सुन।
भवसागर से तरें निःसंदेह ,ऐसे श्रवण पारायणी जन।।
हे अर्जुन! हैं जो स्थावर जंगम प्राणी उत्पन्न।
क्षेत्र -क्षेत्रज्ञ संयोग से ही समझ जान उत्पन्न ।।
नाश रहित स्वभाव देखते जो परमेश्वर को चराचर भूतों में ।
वही समझता वस्तु स्थिति को वस्तुतः यथार्थ -प्रतीतों में ।
समान भाव से स्थिति देखें सब में जो परमेश्वर की।
नष्ट न करते स्वयं स्वयं को, पाते गति परमात्मा ईश्वर की।।
मनुज देखते सभी कर्मों को,जो प्रकृति से संचालित ।
वही देखता वस्तु सत्य, आत्मा को अकर्ता, अचालित।।
जिस क्षण देखें पुरुष भूतों के प्रथक-प्रथक भाव परमात्मनिष्ठ।
तभी प्राप्त होता वह प्रभु को,जब समझे परमात्मा सब में स्थित ।।
है अनादि,निर्गुण,अविनाशी,परमात्मा शरीरों में स्थित ।
फिर भी है निर्लिप्त,निस्पृही,अनासक्त अनुपस्थित ।।
ज्यों सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने से लिप्त नहीं होता है ।
त्यों ही सर्वत्र उपस्थित निर्गुण आत्मा देहासिक्त नहीं होता है ।।
एक सूर्य ज्यों कर रहा प्रकाशित ब्रह्मांड समस्त को।
वैसे ही है करे आत्मा सभी क्षेत्र यानि कि शरीरों को।
इस प्रकार जो जन हैं देखते ,क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को।
वही जानते कर्म सहित प्रकृति से मुक्त प्रतिज्ञ को।।
ज्ञान नेत्र से समझ से अर्जुन! क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के तत्व को।
पा लेते हैं वे महात्माजन परमब्रह्म परमात्म को।।
इति
मीरा परिहार 💐✍️