रात की कालिमा छा गयी थी जहां
श्रृंगारिक मुक्तक
रात की कालिमा छा गयी थी जहां ,
प्रात की लालिमा छा गयी थी वहाँ ।
चाँद का नूर खोया कहीं गुम हुआ ,
ढूंढते ढूंढते चाँदनी फिर कहाँ ।
आँख मलते हुए अब सुबह हो गयी ,
रूठते रूठते जब सुलह हो गयी ।
फेर कर हाथ को प्यार उसने किया ,
देखते देखते फिर कलह हो गयी।
एक टक देख कर प्रेम होने लगा ,
बेखटक देखते रूठने रब लगा ।
खूबसूरत नजर हुश्न भी है जवां
प्यार ही प्यार में मानने मन लगा ।
मुख तेरा देख कर जो खुशी मिल गयी ,
भावना भाँप कर प्रेयसी मिल गयी ।
रूबरू है मेरे मै बयां क्या करूँ ,
हाथ थामे मुझे जिन्दगी मिल गयी ।
जान कर प्यार को प्यार मुझसे हुआ
मान कर प्रीति को प्रीति मुझसे हुआ। ।
एक अहसास है ओठ बेताब हैं ,
झांक कर आँख में स्वप्न सच हो गया ।
“डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव”
सीतापुर