श्रमजीवी
श्रमजीवी
बाजू-बल से जीनेवाला।
स्वेद-नीर को पीनेवाला।
रहता जाने क्यों हतभागी?
कोटि कर्म का फल बैरागी।
चिंदी चिथड़ी एक लँगोटी।
और उदर फाँके की रोटी।
एक अँगोछा लेकर काँधे।
शीश कभी तो कटि पर बाँधे।
चूम रहे कर कर्कश छाले।
आनन पर कुछ बेबस जाले।
जोड़ रहा वह महल अटारी।
उसकी कुटिया में लाचारी।
करती आँखें दो रखवाली।
संग दिहाड़ी मिलती गाली।
झाड़-पोंछ तन वह घर चलता।
श्रमजीवी ऐसे ही पलता।
-©नवल किशोर सिंह