Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
8 Dec 2024 · 7 min read

श्रद्धा तर्क, तर्कबुद्धि तथा ईश्वर (Faith, Logic, Reason and God)

श्रद्धा अपने उपास्य के प्रति समर्पण है, तर्क प्रत्येक पहलू की जांच करके कार्य करना है, तर्क श्रद्धा जीवन में तर्क का प्रयोग करना है। इन सबकी कसौटी पर ईश्वर का क्या स्थान है, श्रद्धालु भावुक होते हैं, तार्किक बौद्धिक होते हैं जबकि तर्कबुद्धि वालों का गुण तर्क से जीवन जीना है। समर्पण का आधर श्रद्धा होती है। संशयग्रस्त व्यक्ति कभी परमात्मा को नहीं पा सकता। बीसवीं शदी संशय से भरी हुई है। विज्ञान प्रत्येक वस्तु पर संशय सिखलाता है। अतः यह शदी परमात्मा व आध्यात्मिकता से बहुत दूर चली गई है। आत्मानुभूति और ईश्वरानुभूति के लिए श्रद्धा की मनोवृत्ति अत्यावश्यक है। आज के युग में श्रद्धा के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। लेकिन गुरुओं व उनके शिष्यों की जीवन शैली ऐसी है कि वे श्रद्धा के स्थान पर अंध्विश्वास की शरण में चले जाते हैं। इस अंध्विश्वास को श्रद्धा कहना सरासर गलत है। श्रद्धा में तो अहम् का विसर्जन होता है जबकि ये तथाकथित श्रद्धावान पूरे अहंकारी होते हैं। परिवर्तन सच्ची श्रद्धा द्वारा ही संभव है, अंधविश्वास से नहीं। तर्क चेतन मन की वस्तु है। उससे हम किसी के चेतन मन को ही प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन अचेतन मन-हृदय अछूता ही रह जाता है। चेतन मन का प्रभाव क्षणिक ही होता है, इसीलिए तो किसी को तर्क में पराजित करके हम उसका हृदय परिवर्तन नहीं कर सकते। कोई बदल तो तभी सकता है जबकि उसका अचेतन मन प्रभावित हो जाए। यह कार्य तर्क से नहीं हो सकता। धर्मिक वाद-विवाद का कहीं कोई अंत नहीं है। हृदय के प्रभावित होने पर ही मनुष्य में परिवर्तन होता है। तर्क या वाद-विवाद से लोगों का हृदय परिवर्तन होता है तो अब तक करोड़ों-करोड़ों लोगों करुणा व प्रेम के अवतार बन जाते। लेकिन ध्रती तो दिन-प्रतिदिन नारकीय ही बनती जा रही है। व्यक्ति का हृदय श्रद्धा से प्रभावित होता है, जबकि तर्क या वाद-विवाद बुद्धि का विषय है। तर्क व वाद-विवाद से बुद्धि जब थक जाती है तो वह श्रद्धा पर जाने को उत्सुक हो पाती है। सम्मोहन की अवस्था में यही तो होता है। उस अवस्था में जबकि हम चेतन होते हैं, हमारा चेतन मन तर्क व संशय में उलझा रहता है। जब सम्मोहन से ऊपरी मन को सुला दिया जाता है, तो अचेतन मन को जो कहा जाता है, वह वही स्वीकार कर लेता हैं श्रद्धा, समर्पण की भावदशा में भी तर्क व बुद्धि शांत हो जाते हैं तथा हृदय सीधे ही प्रभावित होता है। उस समय अंतर्मन का सीध संबंध ईश्वर से हो जाता है। ईश्वर से शक्ति, प्रेम, करुणा, श्रद्धा व आनंद की लहरें प्रभावित होकर हममें प्रवेश करने लगती हैं। बिना पूरी श्रद्धा व समर्पण के अंतर्मन में पूरा बदलाव संभव नहीं है। वह श्र(ा, समर्पण आदि किसी भी विषय के प्रति हो सकता है। वह ईश्वर, गुरु या किसी देवता के प्रति हो सकता है। वह किसी महान व्यक्ति के प्रति भी हो सकता है। इसीलिए तो भाव के जगत् में व्यक्ति को कुछ का कुछ दिखाई देने लगता है। जैसा भी उसका भाव या श्रद्धा होते हैं, उसको वैसा-वैसा ही दिखलाई देने लगता है। यह सब चमत्कार श्रद्धा या भाव का ही है। आजकल भाव का अर्थ बहुत ऊपरी ही लिया जाता है। भाव व भावना में कोई अंतर नहीं माना जाता है। बंगाल में तो भावना को चिंता के अर्थ में लिया जाता है। भावना करते-करते जिस वस्तु का जो रूप बन जाए, उसको भी भाव नाम दिया जाता है। भाव से भावित पुरुष होने वाली मनोवृत्ति को भावुकता कहते हैं। भावुकता से तात्पर्य समझा जाता है कि जो भावना में बह जाता हो या जो अध्कि कल्पना प्रधन हो या जो तर्कहीन हो। प्रेम, अनुराग व श्रद्धा को भी भाव के अर्थ में कभी-कभी ग्रहण किया जाता है। प्रेमी, भावुक, लु, करुणावान व अनुरागी सभी पुरुषों का हृदय भावनाओं के प्रभाव से द्रवीभूत हो जाता है। श्रद्धालुओं को भी भावुक ही कहा जाता है। श्रद्धालु या भावुक व्यक्ति भावनाओं के अनुसार अनेक प्रकार की कल्पनाएं करके उसी के राज्य में जीवन-यापन करने लगता है। भक्ति इससे भी उच्च अवस्था है। वैष्णव संप्रदाय में भाव को सदैव पवित्र अर्थ में लिया जाता है। इसी श्रद्धा, भाव, करुणा, प्रेम, अनुराग व भक्ति का यदि कोई साधक अपनी साधना बना लेता है तो वह ईश्वर का साक्षात्कार तक कर सकता लेता है। वहाँ पर तर्कादि का कोई स्थान नहीं है।
तर्क या बुद्धि का राज्य विचार या बुद्धि तक ही है। भाव, भक्ति या श्रद्धा के जगत् में उसकी कोई भी पहुंच नहीं है। वहाँ पर यह सब पीछे हट जाता है। तर्क, वाद-विवाद, विचार व बुद्धि से बोझिल व्यक्ति श्रद्धा के जगत् में प्रवेश कर ही नहीं सकता। उस अवस्था तक पहुंचने हेतु व्यक्ति या साध्क को इस बोझ से छुटकारा पाना ही होगा। योग की किसी भी पद्धति की साधना करने वाले व्यक्ति हेतु यह सब अति आवश्यक है। यहाँ तक कि चार्वाक, जैन व बौद्ध भी इसी पथ से आगे बढ़े तथा आत्म साक्षात्कार किया था। आजकल इनका जो स्वरूप है वह काफी पूर्ण स्वरूप से स्वार्थवश व दुकानदारी चलाने हेतु बदल दिया गया है। जैन, महावीर, सिद्धार्थ बुद्ध, चार्वाक या कोई साम्यवादी भी यदि साधना करता है या उसने की है तो तर्क-तर्क बुद्धि का साथ छोड़कर उसे भी श्रद्धा, आस्था, प्रेम, करुणा, अनुराग व भक्ति का सहारा ही लेना पड़ता है। तर्क व तर्क बुद्धि वहाँ पर सिर धुनते हैं।
उस अवस्था को ‘नेति-नेति’ कहकर अर्थात् यह भी नहीं कहकर तर्क या तर्क बुद्धि को संतोष करना पड़ता है। उपनिषद् ने भी उस अवस्था का निर्देश ‘आदेशो नेति-नेति’ कहकर किया है। यदि उसका उपदेश करना हो तो निषेधमुख से करना पड़ेगा। लेकिन यह ध्यान रहे कि ‘नेति-नेति’ से ब्रह्म के बुणों का विशेषणों का निर्वचनों का निषेध् होता है, स्वयं ब्रह्म या ईश्वर का नहीं। नेति-नेति से ब्रह्म या ईश्वर की निर्विशेषता सिद्ध होती है, उसकी शून्यता नहीं। महर्षि याज्ञवल्क्य बृहदारण्य उपरिषद में कहते हैं कि दृष्टा का दर्शन, विज्ञात का विज्ञान असंभव है, क्योंकि जिसके द्वारा यह सब दृश्य-प्रचंच जाना जाता है, उस विज्ञात को विज्ञेय या विषय के रूप में कैसे जाना जा सकता है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि जो भी तर्क या तर्कबु्द्धि की पहुंच से परे है उसका विज्ञान या उसके द्रष्टापन कभी लुप्त नहीं होते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व को केवल इसी आधार पर नहीं नकारा जा सकता कि तर्क या तर्क बुद्धि उसको जान नहीं सकते। इनसे भी ऊपर भाव, श्रद्धा, आस्था या व्यक्ति का जगत् है। क्या पश्चिमी देशों के या क्या भारत के वे महान् भौतिकविद्, वैज्ञानिक या पदार्थवादी जो केवल तर्क-वाद-विवाद-विचार-बुद्धिकौशल के बल पर ही पूरे जीवन कार्य व विश्वास करते रहे, वे अपने जीवन के अंतिम दिनों में ईश्वरवादी, श्रद्धालु, आस्थावना या भक्तिपूर्ण होते देखे जाते हैं। वे अक्सर भारत के विभिन्न भागों में स्थित ओशो रजनीश, जिद्दू कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण, रविशंकर, रामदेव या अन्यों के आश्रमों में ध्यान करते देखे जा सकते हैं। संसार के लिए तर्क, तर्कबुद्धि या विचार का महत्वपूर्ण योगदान व स्थान है क्योंकि पदार्थ के क्षेत्रा में उन्नति इनके बिना नहीं हो सकती। परंतु श्रद्धा, आस्था करुणा, भाव प्रेम व भक्ति के जगत् में प्रवेश तर्क या तर्क बुद्धि से न होकर समर्पण से ही होगा, साधना से ही होता। संसार मंतर्क या तर्कबुद्धि से भले ही हम काम चला लें, लेकिन अध्यात्म के जगत् में या ईश्वर के जगत् में श्रद्धा से ही प्रवेश हो सकेगा। जो वैज्ञानिक बुद्धि के लोग या पदार्थवादी या निरीश्वरवादी कहते हैं कि श्रद्धा आदि से शोषण ही होता है, अन्य किसी प्रकार की उपलब्धि इससे नहीं हो सकती। वे यह भूल जाते हैं कि वे स्वयं भी तो किसी न किसी वाद, सि्द्धांत, मतादि के प्रति श्रद्धा रखते होंगे, चाहे वह ईश्वर को नकारने का ही मत क्यों न हो। यदि वे तर्क या तर्क बुद्धि या संदेह से ही सांसारिक सपफलताएं प्राप्त करना मानते हैं तो वे इन पर भी संदेह क्यों नहीं करते? तार्किक व संदेहशील भी पूरी तरह से तार्किक या संदेहपूर्ण नहीं हो सकता।
जीवन में यदि संतुलन बनाना है तो विरोधें में सामंजस्य बनाना होगा। जीवन को यदि भलि प्रकार से संचालित करना है तो उसमें विरो्धी शक्तियों, विरो्धी पक्षों तथा विरो्धी ऊर्जाओं का होना अत्यावश्यक है। जीवन एकपक्षीय नहीं है। जीवन के अनेक पक्ष व अनेक रंग हैं। हम अपने जीवन में केवल तर्क या तर्कबुद्धि को ही क्यों स्वीकार करें? श्रद्धा व ईश्वर आदि को क्यों नहीं मानें हम? जीवन न तो केवल तर्क या तर्कबुद्धि से चल सकता है तथा न ही केवल श्रद्धा व ईश्वर को मानने से चल सकता है। जीवन में सामंजस्य, इन दोनों विरोधी लगने वाले पक्षों में सामंजस्य से ही आ सकता है। तर्क या तर्कबुद्धि तथा श्रद्धा या ईश्वर में कोई विरोध् नहीं है। विरोध्, विवाद या नकार के प्रश्न व्यक्ति ने स्वयं ही उत्पन्न किए हैं। तर्क या बुद्धि विचार को प्रधानता देती है, वह टुकड़ों में देखने की अभ्यस्त है या यों कहें कि वह किसी अखंड सत्ता के संबंध् में सोच भी नहीं सकती। व्यक्ति की सार्थकता इस संसार में रहते हुए यही हो सकती है कि तर्क या तर्क बुद्धि से अपने सांसारिक जीवन को समृ्द्ध बन कर करुणा, या ईश्वर के क्षेत्रद में प्रवेश करें। इसके बगैर व्यक्ति अशांत, तनावग्रस्त व अधूरा बना रहेगा। संपूर्ण जीवन में तृप्त जीवन में, शांत जीवन में, आनंदित जीवन में श्रद्धा व तर्क बुद्धि का होना जरूरी है। जो इनमें संतुलन साध लेता है, वह ईश्वर तक की यात्रा करने में सहज ही समर्थ हो जाता है। यही सनातन आर्य भारतीय वैदिक संस्कृति का संदेश है, जिसके कारण यह भूमि सदैव से विश्वगुरु की उपाधी से अलंकृत होती आई है।
आचार्य शीलक राम
असिस्टेंट प्रोफेसर
दर्शन-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
अध्यक्ष

Language: Hindi
1 Like · 31 Views

You may also like these posts

साथी
साथी
Sudhir srivastava
मेरे कफन को रहने दे बेदाग मेरी जिंदगी
मेरे कफन को रहने दे बेदाग मेरी जिंदगी
VINOD CHAUHAN
वो इश्क जो कभी किसी ने न किया होगा
वो इश्क जो कभी किसी ने न किया होगा
ठाकुर प्रतापसिंह "राणाजी "
■एक मात्रा का अंतर■
■एक मात्रा का अंतर■
*प्रणय*
ਉਸਦੀ ਮਿਹਨਤ
ਉਸਦੀ ਮਿਹਨਤ
विनोद सिल्ला
Hey ....!!
Hey ....!!
पूर्वार्थ
"जिन्दगी"
Dr. Kishan tandon kranti
रमल मुसद्दस महज़ूफ़
रमल मुसद्दस महज़ूफ़
sushil yadav
वह कौन शख्स था
वह कौन शख्स था
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
कंधे पे अपने मेरा सर रहने दीजिए
कंधे पे अपने मेरा सर रहने दीजिए
rkchaudhary2012
निर्माण विध्वंस तुम्हारे हाथ
निर्माण विध्वंस तुम्हारे हाथ
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
कितना सुहाना मौसम.
कितना सुहाना मौसम.
Heera S
cwininet
cwininet
Cwini Net
इंतजार
इंतजार
शिवम राव मणि
तुर्की में आए भूकंप पर मेरे विचार
तुर्की में आए भूकंप पर मेरे विचार
Rj Anand Prajapati
ये जो मुहब्बत लुका छिपी की नहीं निभेगी तुम्हारी मुझसे।
ये जो मुहब्बत लुका छिपी की नहीं निभेगी तुम्हारी मुझसे।
सत्य कुमार प्रेमी
बरखा
बरखा
Neha
प्रायश्चित
प्रायश्चित
Shyam Sundar Subramanian
समझना है ज़रूरी
समझना है ज़रूरी
Dr fauzia Naseem shad
- वो मेरा दिल ले गई -
- वो मेरा दिल ले गई -
bharat gehlot
प्रेम करें.... यदि
प्रेम करें.... यदि
महेश चन्द्र त्रिपाठी
ये जीवन एक तमाशा है
ये जीवन एक तमाशा है
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
*उठाओ प्लेट खुद खाओ , खिलाने कौन आएगा (हास्य मुक्तक)*
*उठाओ प्लेट खुद खाओ , खिलाने कौन आएगा (हास्य मुक्तक)*
Ravi Prakash
जिंदगी का आखिरी सफर
जिंदगी का आखिरी सफर
ओनिका सेतिया 'अनु '
दूहौ
दूहौ
जितेन्द्र गहलोत धुम्बड़िया
ख़ुद में खोकर ख़ुद को पा लेने का नाम ही ज़िंदगी है
ख़ुद में खोकर ख़ुद को पा लेने का नाम ही ज़िंदगी है
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
कौन याद दिलाएगा शक्ति
कौन याद दिलाएगा शक्ति
Umesh उमेश शुक्ल Shukla
#ਝਾਤ ਮਾਈਆਂ
#ਝਾਤ ਮਾਈਆਂ
वेदप्रकाश लाम्बा लाम्बा जी
राखी का बंधन
राखी का बंधन
अरशद रसूल बदायूंनी
3827.💐 *पूर्णिका* 💐
3827.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
Loading...