श्रद्धा “एक सबक”
ठुकरा कर प्रेम जननी का,
घर से जब वह निकली थी।
दर्द में पड़ी ममता के ,
दिल से आह निकली थी ।
नयन अश्रु भरकर मां ने ,
लाख समझाया बेटी को।
अनसुनी कर उसकी बात ,
बेटी चली नए सफर को।
मां ने लाख दलीले दी ,
परिजनों की भी कसमे दी।
उसको ना परवाह किसी की,
वह तो प्यार में अंधी थी।
तोड़कर सारे रिश्ते – नाते,
चली गई वह घर को छोड़ ।
दिल पर पत्थर रखकर मां ने ,
अपना भी मुंह ,लिया मोर।
अब उसकी दुनिया में,
वे दोनों ही अकेले थे ।
प्यार की कसमे वादे थे ,
भविष्य के सुनहरे सपने थे।
धीरे – धीरे प्यार का,
उतरा जब बुखार था।
हर छोटी बात पर,
होने लगा टकराव था।
अनबन उन दोनों की ,
इस हद तक बढ़ चली ।
आवेश में आकर प्रेमी ने ,
हत्या कर दी प्रेमिका की।
इतने पर भी उस वहशी के ,
दिल को ना सुकून था ।
प्रेम का यह तो एक,
घृणित ही स्वरूप था।
शव के बैठा समीप,
दिखाकर अपना बत्तीस।
कर के टुकड़े पैंतीस,
फेंकता रहा एक-एक पीस।
एक अंधे प्यार का,
यह खौफनाक अंजाम था।
प्रेम की पवित्रता का,
यह कत्ल सरेआम था ।
अंत श्रद्धा का नहीं ,
हुआ अंत विश्वास का।
फंसकर मायाजाल में,
विनाश ना करो अपने आप का।
खून से सींच कर मां ने अपने,
जिस बेटी को था बड़ा किया।
हाय ! दरिंदे ने देखो कैसे,
टुकड़ों में बिखेर दिया।
सबक एक श्रद्धा हमें , कुछ इस कदर सिखा गई ।
आजाद रखो खयालों को, किंतु संस्कारों को खोओ नहीं।।
मां-बाप का रोकना – टोकना ,
यदि ना हो आपको पसंद ।
अपने लिए फैसले पर भी,
ना करो इतना घमंड।
अपने बुद्धि – विवेक से,
बेशक चुनो अपना रास्ता।
लेकिन गुजारिश आपसे ,
ना तोड़ो मां-बाप से वास्ता।
ना तोड़ो मां – बाप से वास्ता।।।