शैल शिखर से निकली सरिता
शैल शिखर से निकली सरिता
स्वयं ही मार्ग बनाती है ,
कभी न थकती , कभी न रुकती
नित आगे बढ़ती जाती है ।
पाषाणों के संग खेलती
लहर सखी से सुख दुख कहती
विपिन राहों में है शोभती
मैदान में स्वछंद दौड़ती ।
फसल सींचती नीर बहाती
अपने सारे फर्ज निभाती
सागर से मिलने को आतुर
उसी दिशा में चलती जाती ।
बीच राह में जो भी मिलता
उसे प्रेम से कंठ लगाती ,
पाप मिटाती पुन्य जगाती
अवशेषों को नित्य समाती ।
नदिया कैसी है मतवाली
वो शैल सुता है सिंधु आली
सबकी पूज्य है आराध्य
उज्ज्वल गंगा श्यामा काली ।
डॉ रीता