शेष है –
तूफान ,भूकंप, अकाल, बर्बादी ,
कीड़ों की तरह बढ़ती आबादी ,
जगह कहाॅं है रहने को ?
शेष है-
अभी तो बहुत कुछ कहने को।
उबलती, उफनती हुई जवानी,
बूढ़ी ऑंखों में तैरता पानी,
रह गएआक्रोश सहने को।
शेष है-
अभी तो बहुत कुछ कहने को।
सरहद पर बढ़ती हुई गर्मी,
आतंक के आगे दुनिया की नरमी,
कोई नहीं तैयार जिम्मेदारी लेने को।
शेष है-
अभी तो बहुत कुछ कहने को।
फूलों की ताजगी, मिट्टी की महक,
बच्चों की स्मित, चिड़िया की चहक,
अभी मौजूद है राहत देने को।
शेष है-
अभी तो बहुत कुछ है कहने को।
हरहराती हुई नदी की व्यथा,
बूढ़े समंदर की प्यारी कथा,
तैयार है कलम से बहने को।
शेष है-
अभी तो बहुत कुछ कहने को।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)