“शेष पृष्ठा
“शेष पृष्ठा”
पारमिता षड़गीं
उस दिन घडी थी पापा के हाथ में
और वक्त था मेरे साथ
पता नहीं कहाँ…. कैसे गुम गए
वो घड़ी… और…वो वक्त
कहीं में ठग तो नहीं गई ?
किचड से भरा मुहूर्त
थोप गया है
पलकों के पीछे
देखो तो !
हरप्पा की उस नर्तकी को
आज़ भी खडी है वो
वैसे ही……
आरंभ और अंतिम पृष्ठा
भरकर भेजा है उसने
बाकि पृष्ठा…….
उस पतली डोर को लांघकर
सचमुच कोई भर सकता है करता
उस बाकि पृष्ठा को ?
पूजाघर में जलता हुआ दिया भी
देखने लगा है पूरब की ओर
अब ना दिन ..ना रात…
मेरी आत्मा को खींच रहा है कोई
मेरी साँस को मेरे देह से
धूप जैसा कुछ आ रहा है
बंद झरोखे की ओट से
उस थोड़े से उजाले में
ले जा रही हूं मैं
कुछ न कर पाने की
मेरी अयोग्यता को
कितने शब्दों के साथ
मुझे जाना है
जाना तो पडेगा
‘हाँ’ या ‘ना’
कौन पूछ रहा है ?
खत्म हो रही है अवधि
धीरे-धीरे ,ये देखो,
अलार्म भी बजने लगा है।