शेर भी दोहे भी,
**मुझे न भड़काओ यारों,
मैं धधकती हुई ज्वाला हूँ,
हाथ सेकने को नहीं,
हीरा बनाती हूँ रुपांतरण मेरी भाषा,
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भीड़ तेरी शक्ल ना सुरत,
काम करती है तू औंदा(उलटे)
जिस पर हों जाएं फिदा,
फिर कौन सुहाखा(नेत्र-युक्त)कौन अंधा,
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नाम पर न जाइये नाम है भरपूर,
खण्डित को कहिये अखंड,
नाम पूर्ण न होय ,
पूर्ण भी बँटते देखे,
पूरी भी खानी पड़ती तरोड़-मरोड़ कर,
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कारण कारक एक है,दोनों ही फल देते समान,
कोई कारण खोज आगे बढ़े,
कोई कारक बन मंजिल पाये,
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अध्यात्मिकता एक रोग है,
जिसे लगे ..बढ़ता ही जाये,
लोगों को पागल मालूम पड़े,
उसे परमसुख मिल जाए,
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मैं तुच्छ हु ..तुम सबकुछ,
तुम विराट ..मुझे तेरी पनाह,
जित् देखूँ उत तू ही तू,
महेन्द्र भी गया समां,
डॉ महेन्द्र सिंह खालेटिया,
रेवाड़ी(हरियाणा).