“शेर-ए-पंजाब ‘महाराजा रणजीत सिंह'” 🇮🇳 (संक्षिप्त परिचय)
आज हम जिस इतिहास पुरुष के बारे में जानने जा रहे है उस वीर सपूत को रणजीत सिंह, महाराजा रणजीत सिंह, सरकार खालसा, सिंघ साहब, शेर-ए-पंजाब जैसे नामो से जाना जाता है। एक विशाल खालसा राज चलाने वाला ये इतिहास पुरुष करीब सवा दो सौ साल पहले पंजाब की धरती पर जन्मा था। इस वीर की प्रभुसत्ता को अंग्रेजो ने भी स्वीकारा। रणजीत सिंह के जीते-जी अंग्रेजो ने पंजाब की तरफ आँख उठाने की जुर्रत तक नही की।
महाराजा रणजीत सिंह का नाम भारतीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। पंजाब के इस महावीर ने अपने साहस और वीरता के दम पर कई भीषण युद्ध जीते थे। ये सिख साम्राज्य के राजा थे। ये शेर-ए-पंजाब नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा रणजीत एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजो को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया। पहली आधुनिक भारतीय सेना – “सिख खालसा सेना” गठित करने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। उनकी सरपरस्ती में पंजाब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इसी ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। ब्रिटिश इतिहासकार जे.टी.व्हीलर के मुताबिक “अगर रणजीत सिंह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फतह कर लेते।”
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म १३ नवम्बर १७८० ईस्वी तदानुसार २ मघर संवत् १८३७ को गुजरांवाला (पश्चिम पंजाब- वर्तमान समय में पकिस्तान का हिस्सा) में हुआ। उन दिनों पंजाब पर सिखों और अफगानों का राज चलता था जिन्होंने पुरे इलाके को १२ दलों में विभक्त कर दिया था जिसे मिसल कहते थे। [वे १२ मिसल ये थी― भंगी मिसल, अहलूवालिया मिसल, रामगढ़िया मिसल, नकई मिसल, कन्हैया मिसल, उल्लेवालिया मिसल, निशानवालिया मिसल, फ़ैजुल्लापुरिया मिसल (सिंहपुरिया), करोड़सिंहिया मिसल, शहीद मिसल, फूलकियाँ मिसल, सुकरचकियां मिसल]
रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। पश्चिमी पंजाब में स्थित इस इलाके का मुख्यालय गुजरांवाला में था।
इनकी माता राजकौर ने इनका नाम बुद्ध सिंह रखा था और इनके पिता सरदार महासिंह को इनके जन्म की सूचना उस वक्त मिली जब वे रण में से विजय होकर घर लौट रहे थे इसलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम रणजीत सिंह रखा। और यही नाम बाद में प्रसिद्धि प्राप्त कर गया। बचपन में रणजीत सिंह चेचक की बीमारी से ग्रस्त हो गए थे, जिस कारण उनकी बायीं आंख दृष्टिहीन हो गई थी और उनका जीवन कई दिनों तक खतरे में रहा अंत में वे स्वस्थ तो हो गए परन्तु उनके चेहरे पर चेचक के दाग रह गए।
महासिंह और राजकौर के पुत्र रणजीत सिंह दस साल की उम्र में ही घुड़सवारी, तलवार बाजी एवं अन्य युद्ध कौशल में पारंगत हो गए थे। वे बिना किसी थकान के दिनभर घोड़े की सवारी कर सकते थे। नन्ही उम्र में ही रणजीत सिंह अपने पिता महासिंह के साथ अलग-अलग सैनिक अभियानों में जाते थे। तलवार ऐसी स्फूर्ति से चलाते कि बड़े-बड़े योद्धाओ को आश्चर्य चकित कर दिया करते थे। महाराजा रणजीत सिंह को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, वह अनपढ़ थे।
रणजीत सिंह जब १२ वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु सन् १७९२ ईस्वी में हो गई थी। खेलने-कूदने की उम्र में ही नन्हे रणजीत सिंह को मिसल का सरदार बना दिया गया। रणजीत की कम उम्र के कारण राज्य का कार्यभार उनके पिता के अहिलकार सरदार दल सिंह तथा दीवान लखपत राय, माता राजकौर के आदेशानुसार चलाते रहे।
तेरह साल की आयु में रणजीत सिंह पर प्राण घातक हमला हुआ। हमला करने वाले हशमत खां को किशोर रणजीत सिंह ने खुद ही मौत की नींद सुला दिया।
बाल्यकाल में चेचक रोग की पीड़ा, एक आँख गवाँना, कम उम्र में पिता की मृत्यु का दुःख, अचानक आया कार्यभार का बोझ, खुद पर हत्या का प्रयास इन सब कठिन प्रसंगों ने रणजीत सिंह को मजबूत फौलाद में तबदील कर दिया।
सोलह वर्ष की आयु में रणजीत सिंह का विवाह कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह के स्वर्गीय पुत्र गुरुबख्श सिंह की कन्या मैहताब कौर से हुआ। इनकी सास का नाम सदाकौर था। रणजीत सिंह और मैहताब कौर के विवाह के बाद सुकरचकिया मिसल और कन्हैया मिसल मिलकर एक हो गई। इस प्रकार इन दोनों मिसलो की सम्मिलित शक्ति रणजीत सिंह को उन्नति के शिखर पर पहुँचाने में बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुई। रणजीत सिंह ने कई शादिया की, कुछ लोग मानते है कि उनकी बीस शादियाँ हुई थी।
((जबकि 1889 में लंदन में एक जर्नलिस्ट को इंटरव्यू के दौरान रणजीत सिंह के बेटे महाराजा दिलीप सिंह ने बताया कि वो रणजीत सिंह की 46वी पत्नी जिन्दकौर के बेटे है।))
जब रणजीत सिंह अपनी आयु के सत्रहवे वर्ष में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने अपनी शक्ति का अनुभव करते हुए राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। ऐसे में उनकी सास रानी सदाकौर उनके साथ उनकी सहायता के लिये खड़ी थी। रणजीत सिंह ने राजगद्दी संभालने पर देखा कि पंजाब का अधिकतर हिस्सा सिक्खों की बारह मिसलो के अधिकार में है जो कि अपनी-अपनी जगह पर स्वतन्त्र थे और गुट बना-बनाकर या इक्का-दुक्का होकर आपस में लड़ते रहते थे। कुछ भाग मुल्तान, कसूर आदि परदेसी मुसलमानों के अधीन था। रणजीत सिंह को पंजाब का यह बंटवारा तथा घरेलु लड़ाईया अच्छी नही लगी। उनके मन में विचार आया कि इस फुट तथा स्वार्थपरता की भावना को मिटाकर सारे पंजाब में ऐसा राज्य कायम किया जाये जिसमे पूर्ण शांति, एकता तथा खुशहाली हो। इन्होने आरम्भ से यह ध्येय अपने आगे रखा और इस आदर्श की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने प्रारम्भ कर दिये।