शृंगार
चूम लूँ इन अंधेरों के एहसास को,
कतरा-कतरा पिघलते ये ज़ज़्बात को
लेके अग्नि को बाहों में मोम सो गया,
ऊर्मियों में सिमटती सी ये रात है….
चूम लूँ इन अंधेरों के एहसास को …..
प्रेम अमरत्व की ओर बढ़ता हुआ,
हृदय अठखेलियों से गुजरता हुआ,
मन कि योवन कथाओं को गढ़ता हुआ,
जुगनुओं के मिलन की भी ये रात है…
चूम लूँ इन अँधेरों के एहसास को …
हल्की लौ का वो दीपक गतिमान है,
एक धड़कन को जीती सी दो जान हैं,
गर्म साँसें इशारों की पहचान है,
अनकहे ही सुलझते सवालात हैं…
चूम लूँ इन अँधेरों के एहसास को…
एक-दूजे में हम एक होते हुए,
लब समर्पण भरे बीज बोते हुए,
उनको पाते हुए, स्वयं को खोते है हुए,
आगे बढ़ती समय की मुलाक़ात है…
चूम लूँ इन अँधेरों के एहसास को…
~कमल दीपेन्द्र सिंह, अमरोहा
अनवरत विद्यार्थी