शून्य का उद्भव
सूर्य से विलग हो
स्थापित हो गए अनगिनत पिण्ड
इस संरचना को नाम मिला ब्रह्मांड
हर पिण्ड का
अपना- अपना गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र
बीच- बीच में रह गया कुछ स्थान भिन्न
ना वो इसका था ना उसका
यहीं पर अटक कर
चक्कर खाता रह गया
त्रिशंकु घिन्न- घिन्न
एक बड़े गह्वर के मुहाने जैसा
कोई गणना कर नहीं पाया
कितना बड़ा है
और इसका स्वभाव है कैसा
यहीं से शायद विचार उपजा होगा
क्या नाम दें, कैसे पुकारें इसे
सोच- सोच कर पिंगल ऋषि थम गए
मस्तिष्क हो गया सुन्न ऐसा
अरे, इस स्थान के लिए
रहेगा नाम शून्य कैसा!
एक घेरा,
जिसके भीतर बसा कुछ नहीं.
पिंगल ऋषि को भा गया
स्वरूप ऐसा.
रखा बाएँ पहलू में एक के
शुरू करना गिनती
समझ लो यहीं से देख के.
दायाँ अंग होते ही
एक को दस कर दे
और दस को सौ.
शून्य के संसर्ग से
गिनती बन गयी अपरिमित.
आर्यभट्ट जी को आ गया
दशमलव का विचार.
कर दिया अकों का विस्तार.
हो गया अमिट अविष्कार.
शून्य था तो सदा से यहीं.
पर हमारे पुरखों के अलावा
इस बारे में सोचा किसी ने नहीं.
हमें गर्व है पुरखों पर
हम उनका नाम हम बढ़ाएंगे
देश के नाम को चार चाँद लगाएंगे
इसकी महिमा के मूल्य में
दांये बाजू
शून्य पर शून्य लगाते जाएंगे
इसका मान बढ़ाते जायेंगे..