“शुतुरमुर्ग”
“शुतुरमुर्ग”
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बहुत ज्यादा शातिर होता,
ये उड़ानरहित प्राणी,
होती इसकी तीक्ष्ण दृष्टि,
श्रवण शक्ति और घ्राणी।
शायद देख-सुन और,
सूंघ कर ही जान जाता,
अब यहां आयेगा कोई,
शक्तिहीन अर्थहीन दानी।
खुद कुछ लेने में ये,
थोड़ा जरूर शर्माता,
मगर सदा दूसरों का,
दिया ये खूब खाता।
निगाह इसकी सदा ही,
तब टटोलती है जेब,
दिल और मन में होता,
जब इसके सिर्फ फरेब।
हरेक बेईमानी तो,
कोई इससे ही सीखे;
फिर भी, हर करतूत;
इसकी लगते फीके।
पुतले और तस्वीर तो,
मिले इसके शोपीस में,
मगर जिंदा मिलता ये,
हर जंगली ऑफिस में।
दिखता ये प्राणी बेहतरीन,
और सदा अज्ञानी सरीखे,
मगर,अलग ही होते इसके,
चाल ढाल और अन्य तरीके।
सहन शक्ति होती इसमें,
सदा बहुत ही अपार,
जिसपर नजर गड़ जाए,
उसी से करता ये व्यापार।
विलुप्त प्राणी है ये अब,
सरकार की नजर में;
मगर सदा बैठा रहता ये,
हर सरकारी दफ्तर में।
रूप और काया होती इसकी,
थोड़ी बहुत नरभक्षी जैसी;
मगर हाथ और चोंच होती,
इसकी सदा, एक पक्षी जैसी।
ये शाकाहारी भी है और,
दौड़ता भी मनमौजी सा;
अपने शत्रु को भांफ लेता,
एक बहुत बड़े फौजी सा।
स्वरचित सह मौलिक
…..✍️पंकज “कर्ण”
………….कटिहार।