शु’आ – ए- उम्मीद
कहीं कुछ अटका सा कुछ भटका सा
बेचैन दिल लिए फिरता हूं,
कुछ कहे कुछ अनकहे
दर्द लिए रहता हूं ,
कुछ कह ना पाऊं के अपनों की
फ़ितरत ने मुझे इस हालत मे लाके छोड़ा है,
या ये अ’ज़ाब मेरी का क़िस्मत का धोका है ,
फिर भी मैं चुप रहता हूं ,
रूदाद -ए- ग़म जज़्ब किये रहता हूं ,
शायद कोई शख़्स मिल सके ,
जो मुझे समझ सके ,
ये शु’आ – ए- उम्मीद जगाए रखता हूं ।