शीश महल तू और खण्डर मैं
देखलें तू मेरा शीशे का मकान रहने दें
जिस्म से रूह तक का निशान रहने दें
होठों पे मत ला बाजार की बातें तू भी
यूँ रिश्तों में व्यापार का जहान रहनें दें
तू एक खिलाड़ी और मैं तेरा खिलौना
हकीकत में मुझ परिंदे को नादाँ रहने दें
सरहदें भले बाँध दी हो तुमने जमीं पर
मेरे लिए मुठ्ठी भर सही आसमाँ रहने दें
खुशियाँ तू रख लेना दुःख मुझे दे देना
टूटते रिश्तों में इतनी तो पहचान रहने दें
जल्दी पक जाएंगी अब ख़्वाब की फसलें
दिल की धरती गीली और आसान रहने दें
शीशमहल तू और मैं खण्डर ही सही तेरा
गुमनाम सफर में अपने अहसान रहने दें
अशोक खुद देख लेगा उम्र के फासिलें
ख्वाइशों से जुझतें जिद्दी तूफ़ान रहने दें
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से