शीर्षक: मैं पत्थर हूँ
शीर्षक: मैं पत्थर हूँ
मैं पत्थर हूँ…
मेरी जीवन लीला बहुत विचित्र हैं
कौन कब समझ पाया पूर्णता से मुझे
मनुष्य तो मनुष्य में ही पत्थर दिल देख पाया
कहाँ कभी वो मुझ तक पहुंच पाया
मैं पत्थर हूँ…
मशीनों में टूट तुम्हारा घर बनाया
सड़क बांध तक मे मैं ही तो काम आया
शिखरों से बह तुम्हारे ही तो काम आया
देखते हो बहुमंजिला मैं ही तो काम आया
मैं पत्थर हूँ…
मेरा छोटा रूप भी तुम्हे बहुत भाया
तभी तो पूजा में शालिग्राम बना बैठाया
ईश्वर रूप में मैं ही तो मंदिर आया
फिर भी कोई मेरा दर्द समझ न पाया
मैं पत्थर हूँ…
बेगम की याद में ताजमहल मैने ही तो बनाया
तेज धूप,गर्मी,सर्दी में स्वयं को मैं संभाल पाया
पर प्रतिशोध में भी जब मुझे लाया गया
फेंका बदनामी के सिवा कुछ न मिल पाया
मैं पत्थर हूँ…
कुछ कलुषित मन,स्वार्थी लोगो ने बदनाम किया
उस समय तो मेरा दिल जार- जार रोया
पत्थर हूँ साहब कब कोई मिटा पाया
विस्फोटक की मार भी झेल मैं टिका ही पाया
मैं पत्थर हूँ…
पानी की तेज धार को शरीर पर खाया
तब जाकर मनुष्य तेरे काम आया
अनवरत बहाव को मैं ही दिशा दे पाया
दोनो किनारों के बीच जगह दे पानी तुमने पाया
मैं पत्थर हूँ…
उन्नत शिखरों से आकर सागर तक समाया
कितनी मार सहस्र वर्षो से मैने खुद पर खाया
तब जाकर पत्थर रूप में तुम्हारे सामने आया
पत्थर हूँ, पत्थर को कभी कोई समझ न पाया
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद