शीर्षक – मेरा मुकद्दर ( गजल )
शहर में बिखरी है सनसनी सी ,
कुछ माहौल भी गमजदा सा है ।
मेरी आंखें हैं शमशान जैसी ,
ख्वाब फिर से कोई मरा सा है ।
छीनकर जश्न करते तो होंगे ,
हक है उनको सजी महफिलों का ,
मेरे कूंचे में आकर तो देखो …
जैसे कोई कहर बरपा सा है ।
हम ही से ताल्लुक खामोशियों का ,
हैं उनके लब पर कई तराने ,
तन्हाई में यूं गुजर रहे पल ,
ये एक पल भी सजा सा है ।
इश्क की तौहीन है बेवफाई ,
हमें तो हासिल कई सबब हुए हैं ,
कफस में है दिल यूं घुट रहा है ,
जैसे दिल पर जमा धुआं सा है ।
लदी है कश्ती ख्वाबों के वजन से ,
हर एक मुकद्दर का अंजाम तयशुदा है ,
मेरा मुकद्दर है हाशिए पर ,
हर एक दरिया खफा सा है ।
मंजू सागर
गाजियाबाद