शीर्षक-“माता-पिता और गुरु”
साथियों गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने मन के उद्गार इस कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने की कोशिश की है और उम्मीद रखती हूं कि आप अवश्य ही पढ़ेंगे और अपनी प्रतिक्रियाएं भी व्यक्त करेंगे ।
शीर्षक-“माता-पिता और गुरु” (हिंदी कविता)
प्रथम नमन माता-पिता को
जिनसे जिंदगी हुई शुरू
वे हैं मेरे प्रथम गुरु
द्वितीय नमन उस शिक्षक को
जिनसे मिली हर प्रकार की
शिक्षारूपी ज्ञान की लौ को
वसुदेव कुटुंबकम की भावना के
साथ कर सर्वत्र प्रकाशित
वे हैं मेरे द्वितीय गुरु
दुनिया में जब कदम रखा पहला
तो लोगों को यह कहते हुए सुना
कि क्या मुसीबत आ गई
तब मां ने ही हाथ पकड़कर कहा!
तू तो मेरी लाडली बिटिया है
इन फिजूल की बातों से दिल न दहला
मैं सोचती,
अगर मां न होती
तो इस दुनियां से कैसे लड़ती
चलने की आस में पहला कदम बढ़ाया
फिर क्या था, मेरा पैर थोड़ा लड़खड़ाया
गिरने से बचाते हुए पापा ने आकर संभाला
चलते-चलाते मुझे यहां तक पहुंचाया!
फिर मैंने सोचा अगर पापा न होते
तो मुझे इस बाहरी दुनियां में चलना
कौन सिखाता ?
फिर राह में आया एक नया मोड़
जिसमें मिला साथ किसी का लिए
ढेर सारी किताबें माता-पिता को पिछे छोड़
जिन्होंने किताबों से दोस्ती करना सिखाया
सच्ची राह पर चलना सिखाया
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान
के महत्व को समझाया
जब उनका महत्व मैंने जाना
तब उनको अपना गुरु माना
उनकी सीख को अपनाते हुए चल पड़ी है आरती
होके मायूस न यूं सांझ से ढलते रहिए
जिंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए
एक ही गांव पर रूकोगे तो ठहर जाओगे
धीरे-धीरे ही सही राह पर चलते रहिए।
आरती अयाचित
स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल
दि.05-07-2020