शीर्षक – जेब की मरम्मत
“पापा आ गए”
पिंकी ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला।
विजय जी चुपचाप अन्दर आए और टिफिन व बैग पास ही खड़े बेटे टिंकू को पकड़ाया। खुद ढीले हो कर पलंग पर जा लेटे।
“क्या हुआ ? तबियत ठीक नहीं दिख रही आपकी।”पत्नी नीला पानी का गिलास देते हुए पूछ बैठी।
“नहीं नहीं सब ठीक है नीलू। तुम चिन्ता न करो। “विजय जी ने दिलासा दी।
चाय पीकर थोड़ा आराम करने के बाद वे टीवी देख रहे थे।
“पापा एक्जामिनेशन की फीस का आज लास्ट डे था। कल से 15 रु प्रतिदिन के हिसाब से पेनाल्टी।”
“कोई बात नहीं बेटा। मैं सोमवार को
तेरी फीस पेनाल्टी के साथ भर दूंगा यह वादा करता हूँ।” बच्ची को धैर्य दिलाया विजय जी ने।
पिता जी की दवाइयाँ, पत्नी की बीमारी, बेटी के कालेज की फीस, बेटे के इंग्लिश मीडियम स्कूल का
खर्च, प्रति माह मेहमानों का खर्च या शादियों, भात आदि के खर्च वे खर्च थे जो घर गृहस्थी के मासिक रुटीन खर्चों (जिनका ज़िक्र यहाँ किया ही नहीं गया है ) के अलावा आते हैं और ये खर्च धूमधाम से आते हैं और अपनी खातिरदारी पूरी करवा कर ही दम लेते थे ।
घर में विजय जी अकेले ही कमाऊ सदस्य थे और उनकी आय भी कोई खास नहीं। शिक्षा विभाग में हिन्दी के वरिष्ठ अध्यापक थे वे।
समय के अनुसार खर्चों के विस्तार के कारण दिन-रात गृहस्थी की उधेड़बुन में विजय जी दुबले होते जा रहे थे।
एक दिन विजय जी ने पत्नी नीला से अपने हृदय की व्यथा का दर्द बाँटा। कहने लगे -“नीलू। मैं कैसे तुम सब को खुश रखूं समझ में नहीं आता।”
“आपसे मैंने कब कहा कि मैं खुश नहीं हूँ आपके साथ ?”
” नहीं नीलू । एक तो मेरी जेब इतनी बड़ी नहीं और उस पर फटी जेब।”
“कैसे बच्चों की सारी ख्वाहिशें पूर्ण हों”उन्हें क्या बताऊँ कि तुम्हारे पापा की जेब फटी हुई है उसमें पैसा टिकता नहीं। रखते ही निकल जाता है और फिर वही खाली खस्ता हाल।”
नीलू ने ढाढस बंधाते हुए कहा- “आप कहें तो मैं प्रयास करूं आपकी फटी जेब को सिलने का”
” वह कैसे” विजय जी बोले।
” कहीं नौकरी करके।”
“जीवन संगिनी हूँ आपकी। जेब की मरम्मत भी तो मेरा ही दायित्व है ” नीलू ने उत्तर दिया।
विजय जी सहमति में मुस्कुरा दिए।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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