शीर्षक-” किनारा “(21)
याद है हमेशा वो नज़ारा,
दोस्तों संग बैठे वह पुलिया का किनारा,
कभी करते हुए गुफ्तगू,कभी गाना गुनगुनाना,
वो आपस में ही अंताक्षरी या
गानों की प्रतियोगिता खेलना,
दोस्तों का कभी हार के भी जीत जाना,
वो ठहाके लगाना,वो हंसना-हंसाना,
हमारा जीतकर भी हार जाना,
पर कोई अफसोस नहीं करना,
यह हार-जीत तो इंसान की सोच का अमूल्य ढंग है,
यही तो ज़िंदगी जीने का एक अजब ही रंग है,
काश!कि वो कहीं खोया हुआ दोस्तों वाला किनारा वापस मिल जाए
अगर हार-जीत दोस्तों की हमेशा संग हों,
तो ज़िंदगी जीने के लिए विभिन्नता की रंगभरी
उमंगता के रंग हों||
आरती अयाचित
स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल