शीर्षक:चाहती हूँ
चाहती हूँ..!
आज लेकर एक कोरा कागज
दिख देना चाहती हूँ अपनी व्यथा
या कहूँ कि मन के भीतर कुछ
घुमड़ते हुए मनोभाव
लगता हैं भर दूँगी पूरे कोरे कागज को
जज्बातों की आवाज़ से
पर क्या सच में हो पाएगी मुराद पूरी..?
शायद किसी कोने से आवाज आई
नही,कभी नही हो पाएगी मुराद पूरी
अपनी भावनाओं को लिखकर पहुंचना
चाहती थी तुम तक
शायद यही सोचकर कि शायद पूर्ण
होगी सारी आकांक्षाए हूबहू
क्या मेरे मन की बात सही हैं..
जो भीतर उठ रही हैं..?
अमिट प्रेम की ज्वाला शायद शांत हो
मन के जो क्लान्त हैं वह शांत हो
मन के बवंडर शांत हो जाए शायद
इस कोरे कागज के माध्यम से ही
पहुंचे मन के उद्गार मेरे जो
क्लान्त किये हैं मुझे शब्दो में उतारने को
क्या कर पाई ये इच्छा पूर्ण
पढ़ कर बताना क्योंकि कागज
कोरा नही है भावपूर्ण हैं
तुम्हारी भावाभिव्यक्ति के लिए
प्रतीक्षारत…मैं..
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद