शीर्षक:उन्मत्त सी
मैं चल रही थी…
अपनी राह शान्त…
जीवन मद में निश्चल सी गति लिए…
नदी सी बहती चल रही थी कर्तव्य पथ पर…
आया वो पत्थर की मानिंद जीवन राह में
मोड़ गया रुख मेरे जीवन पथ को
स्वयं के मुताबिक और मैं भी बह गई
उसकी धार संग उसके बंध मात्र से
अपनी राह चल रही थी उन्मत्त
क्यों ऒर कब बंध बन आया वो
मेरी राह को बाधित करने
कोई रोके राह मेरी ये मेरी प्रकृति नही थी
फिर भी कुछ वक्त पर छोड़ दिया मैंने और
अपने स्वभाव से विपरीत चली मैं उसकी दिखाई राह
मानो संकेत दे गया कोई तूफान सा जिंदगी में
कष्टो ने मानो राह सी पकड़ ली रफ्तार की
अपनी राह में अड़े चट्टानो के रूप में देखती रही
अपलक उस बदलती राह को जो मेरे जीवन की
दिशा ही बदल गई,उस के प्रवेश मात्र से ही
अब चाहती हूँ चिर निंद्रा में सो जाना सुकून से
उस पार जहाँ मैं सिर्फ मैं रहूँ
निकल जाऊँ उस राह जहाँ कोई बाधा
कोई बंधन विचलित न कर पाए मुझे
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद