शीत मगसर की…
जुल्म कितने ढा रही है,
शीत मगसर की।
घट रहा है मान दिन का,
घरजमाई सा।
रात बढ़ती जा रही है,
हो रही सुरसा।
बिम्ब कितने गढ़ रही है,
शीत मगसर की।
लिपट कुहरे में खड़ी है,
धूप अलसाई।
वात का लेकर तमंचा,
रात घर आई।
भाव कितने खा रही है,
शीत मगसर की।
चाँद भी सुस्ता रहा है,
ओढ़कर चादर।
झाँकता है बस कभी ही,
चोर सा छुपकर।
चीरती तन जा रही है,
शीत मगसर की।
ठिठुरती है ओस भी अब,
पड़ रहा पाला।
दूर सहमी सी खड़ी ज्यों,
रूपसी बाला।
ख्वाब कितने बुन रही है,
शीत मगसर की।
जुल्म कितने ढा रही है,
शीत मगसर की।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“अरुणोदय” से