शीत ऋतु की धुंध सा प्यार
शीत ऋतु की प्रथम धुंध
की भांति होता है प्यार
पता ही नहीं चलता ,कब
प्यार का यह घना कोहरा
दिलोदिमाग पर इस कदर
एकाधिकार छा जाता है कि
कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता
संसारिक,सामाजिक परिवेश
हो जाता है तनबदन जड़ सा
छायी रहती है खुली आँखों में
बस प्रियतम की सुंदर तस्वीर
स्थिर हो जाती हैं जालिम नजरें
टकटकी लगाए प्रेम लक्ष्य पर
दिखाई देती है वह प्रेम मछली
अर्जुन की भांति दिखाई देता है
मछली सी आँख सा एक लक्ष्य
जिसको बस भेदना है अवश्य
पहुंचना है केवल मंजिल पर
छूना है प्रेम की बुलंदियों को
भीगना है प्रेमवर्षा की बूंदों में
रंगना और खुद रंग जाना है
प्रेम के अदृश्य-अदभुत रंगों में
बन कर के प्रेमिल भंवरा सा
चुसना है फूलो का मधुर रस
और सदैव मंडराते रहना हैं
रंगबिरंगे फूलें के इर्द गिर्द ही
ताकि मिलती रहे भीनी सुंगध
आजीवन इस मानव जीवन में
और सचेत भी रहना है साथ साथ
ताकि चुभ ना पाएं नाजुक तन को
ये दुनियावी तीखे त्रिशूल से शूल
लेकिन शीत ऋतु की अंतिम
धुंध की भांति, बिना बताए
कब जीवन में छंट जाए यह
प्रेम रूपी धुंध अकस्मात ही
दिखा जाए स्पष्ट चेहरा दुनिया में
धुंधरहित निखरे से दिन की भांति
-सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली ( कैथल)
9896872258