शीतल
पिताजी जलती ऑंखों से घर में घुसे। मां तनावग्रस्त हो गईं..”आज फिर कुछ हो गया लगता है”, माँ ने मन ही मन सोचा। तब तक पिताजी ने शीतल को पुकारा.. “शीतल”
“आती हूॅं पिताजी”
“जी कहिए” कहती हुई शीतल सामने आई
“क्या हुआ था वहाॅं, मुझे पूरी बात बताओ ” सख्त आवाज में उन्होंने पूछा
“कुछ भी तो नहीं.. सब्जी वाला अश्लीलता से गाजर- मूली दिखा- दिखा कर कह रहा था कि ले लो शीतल, तुम तो कभी देखती ही नहीं हो इधर” कहते कहते शीतल का चेहरा गुस्से से लाल हो गया
“फिर” पिताजी ने गुस्से से पूछा
“मैंने उसका चाकू उठाया और गुस्से में उसके हाथ से दोनों चीजें छीन कर टुकड़े -टुकड़े कर के उसके मुंह पर फेंक आई, अब मैं कभी सब्जी खरीदने नहीं जाऊंगी”
कहकर शीतल मुॅंह घुमा कर भीतर जाने लगी
“रूको” पापा दहाड़े
“जी”
“अब यदि वो ऐसा करे, तो सब्जी नहीं, उसके उन्हीं हाथों के टुकड़े करके आना, समझीं” कहकर पिताजी भीतर जाने लगे..
“पिताजी” कहकर शीतल उनके गले लग कर फूट-फूट कर रो पड़ी
“सब्जी लेने मैं ही जाऊंगी रोज!” शीतल ने मजबूती से कहा
“अपना आत्मविश्वास इतना मजबूत रखो कि वो पैरों की कमी महसूस ही न होने दे, शीतल! और हाॅं , खबरदार जो भविष्य में फिर कभी तुम डरीं तो”, कहते हुए दिव्यांग शीतल के माथे पर पिताजी ने हाथ फेरा और भीतर चले गए।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ