शिशिर कामिनी
लौटते पशु-विहग
कोलाहल चहुंओर,
कांपती अरुणिमा छिपती
क्षितिज की ओर।
सकुचाई शिशिर वसन लिपटी
लौट रही ‘शिशिर कामिनी’,
वसुधा की ओर।
स्याह वसन को डाल रही
सुर्ख बदन वो गाल रही,
भेद रही शीतल प्रवाह तन
कम्पन करती बढ़ रही,
निशीथ की ओर।
चन्द्र किरण चहुंओर हैं छिटकी
हैं विभवारी का सूनापन,
वेग प्रवाह में डोल रहा पल्लव
जैसे शिशिर कामिनी नृत्य करे चहुंओर।
ज्योत्सना अब सिमट रही
छोड़ निशीथ का साथ,
भोर किरण की अरुणिमा विस्तारित
पल्लव किसलय यौवन की ओर॥