शिव शंकर कैलाशपति
(घनाक्षरी छंद)
(१)
काल के कपाल में तिलक जैसा सोहता जो,
कण – कण में विराजता हुआ सुवक्त हूँ ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, त्याग संत औ सुजान-
जैसा ही अखंड व्रतधारी औ विरक्त हूँ ।
दीन, औघड़ी, मलंग, क्षार लिप्त, काम रिक्त,
काल के भी काल महाकाल का मैं भक्त हूँ ।
कालकूट कंठ, माल व्याल, चन्द्र शीश धार ,
आशुतोष, व्योमकेश, रुद्र अनुरक्त हूँ ।
(2)
पंचभूत के अकूत सार रुद्र ध्यान लीन
बैठ धूनि डाल आज ध्यान में सुमग्न हैं ।
सक्त हैं विरक्त, राम भक्त, देवता के देव-
ध्यान में रटें श्रीराम राम में निमग्न हैं ।
शिव अनादि काल से परे रहे सदैव किन्तु,
तन्तु-तन्तु रूप शून्य के वही शुलग्न हैं ।
भक्ति में उन्हीं की शक्ति और काव्य पंक्ति-पंक्ति,
में रमे विभूत रूद्र सत्य में विलग्न हैं ।
(स्वरचित, मौलिक)
✍️ आनन्द बल्लभ
(अल्मोड़ा, उत्तराखंड)