शिव के नंदी
मैं , समझ नही पा रही –
ये जो हर पाँच सालों में एक बार ,
हमारे दरवाज़ों पे, हाँथ बांधे ,सर झुकाये ,
शिव के नंदी से दीखते लोग आ खड़े होते हैं,
विनम्रता और सौहार्द का पर्याय बन के।
कहाँ गायब हो जाते हैं ?
चुनावी प्रतियोगिता ख़त्म होते ही।
मैं समझना भी नहीं चाहती,
इस दोगलेपन को,
कि हमारे दरवाजों पे,
मिट्टी में लोटे गंदे ,नाक बहते बच्चों को
अपनी महंगी रुमाल से साफ़ करने बाले लोग ,
चुनाव के बाद उसी बच्चे से ऐसे दूर भागते हैं ,
जैसे : कोढ़ हो गया हो।
मैं नहीं समझना चाहती कि
हमारे दरवाजों पे बहू बेटिओं को देख
जो लोग उसे अपनी ज़िम्मेदारी बताते नहीं थकते।
जब वही बहू बेटी बलात्कृत हो
अपने ही रक्तिम नदी में नंगी डूब मर जाय,
फाइलों के चक्रव्यूह में उनकी आत्मा तक को
बेआबरू करने की साज़िश होते देख।
उनकी सारी संवेदना सुन्न कैसे पर जाती है।
मैं ये भी नहीं समझना चाहती कि ,
हमारे ही दरवाज़ों से जो,
सद्भावना और सौहार्द के नारे बुलंद किये जाते है
इसी चुनावी खेल के लिए ,
हमारे ही बच्चों के, एक हाँथ में धर्म का झंडा ,
दूसरे में नंगी हथियार थमा के,
धर्म युद्ध के योद्धा घोषित कर
अपना उल्लू कैसे सीधा कर लेते हैं ये लोग ।
मैं ये भी नहीं समझना चाहती कि
वही बच्चे जब एक दूसरे को काटते होंगे
एक दूसरे के गर्म चिचिपे लहू से खेलते होंगे
एक दूसरे पे फेके गए बमों की बारूद की महक़
और अधजली लाशों के गंध में किस धर्म को देखते होंगे
मैं कुछ नहीं समझना चाहती
बस अपनी आने बाली नस्ल के लिए
आज़ाद, अशफाक,गाँधी,अम्बेडकर
और भगत का भारत चाहती हूँ !
बस इतना ही …
13 -11 -2018
[ मुग्धा सिद्धार्थ ]