शिव कुमारी भाग ६
घर के बाहर दहलीज़ पर दादी की अदालत बैठती थी।
मुहल्ले के एक हिस्से मे, मजदूरों और रिक्शेवालों की चंद झोपड़ियां थी। गरीब लोग पैसे की किल्लत मे गुज़ारा करते थे, उस पर शराब की लत, इसलिए छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे से लड़ लिया करते थे।
कई बार दुसरों से लड़ाई न हुई तो मन खाली खाली सा लगता था, रोज की आदत जो ठहरी , उस वक्त उनके बीवी बच्चे उनके काम आते थे, दो चार थप्पड़ और गालियां जब तक न निकली , मन मे बोझ सा रहता था।
उनको ये लगता कि आज शराब के पैसे जाया हो गए।
ये चींख पुकार सुनना हमारे लिये आम बात थी। जब ये आवाज़ें हद से गुज़र जाती और लगता कि इसका निपटारा उनके बस की बात नही।
तो फिर दोनों पक्ष बूढ़ी ठकुराइन उर्फ दादी की उच्चतम अदालत मे पेश होते।
फरियादी की पुकार सुनकर दादी कहाँ रुक पाती , लाठी टेकती हुई घर की दहलीज पर हाज़िर हो जाती, घर के अन्दर से मैं या कोई और एक पीढ़ा लेकर आता। दादी उस पर विराजमान होती और अपनी छड़ी से सामाजिक दूरी बनाये रखते हुए(जैसे कि उनको कोरोना की ५० वर्ष पहले ही कोइ आशंका रही होगी) ,एक अर्द्ध गोलाकार सी लक्ष्मण रेखा खींचती, ये इशारा होता कि दोनों पक्ष और तमाशबीन रेखा के उस पर बैठ सकते हैं।
शराब की बदबू से बचने के लिए अपने मुँह को पल्लू से ढकते हुए, गालियां देते हुए, एक मास्क बना लेती। दादी को ऐसा करते देख, मजदूर शर्मिंदगी से थोड़ा और पीछे हो जाता।
दोनों पक्षो की बातचीत ध्यान से सुनने के बाद, दादी फैसला सुनाती।
फैसला सुनाते वक्त कोई अतिरिक्त साक्ष्य रखने की कोशिश करता , तो मन करता तो सुनती ,नही तो अपनी मारवाड़ी और बांग्ला मिश्रित भाषा मे दो चार मोटी मोटी गालियां देकर उसको चुप करा देती। अन्यथा दोनों पक्षों मे कोई एक या तमाशबीन ही बोल उठता
“शुगुम कोरे बोसे थाक, देखछो नाइ, बूढ़ो ठाकरान बोला सुरु कोरे दिएंछे”
(चुपचाप बैठे रहो, दिखाई नही देता, बूढ़ी ठकुराइन ने बोलना शुरू कर दिया है)
दलील देने वाला, फिर अपना सा मुँह लेकर, चुप हो जाता।
दादी का फैसला अटल होता, इसके बाद कोई समीक्षा याचिका की गुंजाइश नही होती।
फिर पक्षकार माहिलाये उनके पांव छूकर चली जाती। शराबी पास फटकने की हिम्मत भी नही करते, वो दूर से साष्टांग दंडवत करके चले जाते, फिर दूसरे दिन कल की भूल की क्षमा मांग कर पांव छूते। उस वक़्त सीख भी फिर नरम अंदाज मे गालियों के साथ मिलती।
दादी फिर दोपहर, शाम या रात को कोई और झगड़े का निपटारा करते हुए पाई जाती।
उनकी अदालत साल के हर दिन खुली रहती और किसी ने भी ये नही कहा कि फैसले मे उनके साथ अन्याय या अनदेखी हुई।
बीच बीच मे अपनी पुरानी साड़ियां, यजमानों से मिली धोतियां और खाने पीने का सामान उनमें अक्सर बाँट देती थी।
एक बार दादी की अदालत मेरे जन्म से पहले, किसी यजमान के यहाँ भी बैठी थी, किसी नए शिक्षक ने उनके सबसे सीधे साधे पोते को किसी बात पर इतनी जोर से तमाचा मारा कि मोटे हाथ की छाप गाल पर मौजूद दिखी, इस सदमे से मेरे चचेरे बड़े भाईसाहब कुछ यूं आहत हुए कि उनको थोड़ी बुखार भी हो गयी।
औऱ घरवालों ने तो कुछ नही कहा, पर दादी को जब ये पता चला तो उनके पास बैठकर पुचकारते हुए सारी बात उगलवाई, शिक्षक का नाम भी पता कर लिया।
ये भी समझ मे आ गया कि पोता बेवजह पिटा है।उस वक्त के शिक्षक भी अपना खौफ और दबदबा बनाये रखने के लिए ये कारनामे अंजाम दिया करते थे।
बस उनके नमूना पेश करने की ख्वाहिश ने इस बार लक्ष्य गलत चुन लिया था।
यजमान के घर बैठे बैठे जब वही शिक्षक ट्यूशन पढ़ाने आये तो बातों बातों मे उनका नाम पता चला, नए होने के कारण दादी ने उन्हें कभी देखा नही था।
पता चलते ही, वो तेजी से उठी और शिक्षक के पास पहुँच कर उनके बाल पकड़े और खींचती हुई बोली, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे सीधे साधे पोते को बिना बात हाथ लगाने की, तुम्हे तो मैं
जिला खारिज (तड़ीपार) कराके ही छोडूंगी।
दादी का ये रौद्र रूप देखकर , शिक्षक चुपचाप नीची नज़र करके चले गए।
फिर दादी को बहुत समझा बुझाकर ही शांत किया जा सका।
दादाजी के हस्तक्षेप के बाद ही वो विद्यालय मे शिक्षक की शिकायत न दर्ज कराने पर मानी।
दादी के इस कदम का लाभ हमारी घर की भावी पीढ़ी को भी मिला, शिक्षक अकारण हाथ अब कम उठाने लगे थे
वो गांव की दादी थी, उनसे पंगा लेकर कौन अपने सर मुसीबत लेता?