शिव कुमारी भाग १३
वो किस्से , कहानियों और लोक मुहावरों की एक कोष ही तो थीं।
उनकी किस्सागोई के सभी तलबगार थे घर में। रात के वक़्त खाना खाने के बाद हम बच्चे उनके माचे(खाट) पर बैठकर अक्सर ये फरमाइश कर देते कि दादी कोई कहानी सुनाओ।
एक एक कहानी को न जाने कितनी बार सुना होगा, झिंडिया, बहत्तर सूओं, हीर गुज्जर, बई खाऊं(वही खाऊंगा) , चुरमलो खायो तो या दशा होई(चूरमा खाने से ये दशा हुई),टपकले की कहानी, तोतली बहनों की कहानी, रामायण , महाभारत के प्रसंग, न जाने उनके इस पिटारे में क्या क्या मौजूद था।
कभी उनका दिल होता तो फटाफट सुनाना शुरू कर देती।
और कभी कभी,
“रामर्या आ जाव ह छाती छोलण, आपकी मायतां स सुणो कहाणी”
(कमबख्त आ जाते हैं छाती पर मूंग दलने, अपनी अपनी माओं से जाकर सुनो कहानी)
ये सब बातें हम पर बेअसर रहती थीं, ये बात वो भी जानती थी,
थोड़ी देर मनुहार करने पर उनको राजी कर ही लेते थे।
उनकी लोकोक्तियाँ, साखी और विनोदपूर्ण कहावतों का एक अलग ही मजा था।
विवाह में फेरों के बाद दूल्हे से थोड़ी चुहल बाजी की रस्म आज भी प्रचलित है। एक रस्म के अनुसार उसको कुछ श्लोक या साखी कहने को कहा जाता है।
तुकबंदी लिए ये दोहे कभी आग्रहकर्ता को शर्मसार भी कर जाते थे। गांव के एक सेठ की शादी का किस्सा दादी बहुत हँस हँस के सुनाती थी, विवाह के समय जब उनसे भी ये फरमाइश की गई कि कोई साखी बोलिये, तो वो बोले कि बस एक सुनाकर ही वो ये किस्सा ख़त्म कर देंगे, उन्होंने फिर ये कहा,
” छन्नी म कटोरी , कटोरी म जौ
सासु म्हारी एकली, सुसरा म्हारा सौ”
ये सुनते ही घराती महिलाओं ने फिर दूसरी साखी सुनने से तौबा ही कर ली!
दादी फिर ये कहने से भी नहीं चूकतीं कि ” रामर्या म कोई ल्हूर कोनी, सासरा म कोई इसी बावली बातां कर ह के?”
(मूर्ख में कोई सलीका नहीं है, अपनी ससुराल में पहली बार जाकर कोई ऐसी ओछी बातें करता है क्या)
ऐसे ही किसी बूढ़े व्यक्ति ने अपनी हमउम्र की किसी औरत से शादी कर ली।
दोनों ने एक दूसरे को देखा नहीं था। विवाह के पश्चात जब एक ही ऊँट पर बैठकर वो लौट रहे थे, तो बूढ़े को थोड़ी आत्मप्रकाशन की इच्छा हुई,
वो अपनी नई दुल्हन को बोला,
“मरद तो एक दंतियो ही भलो”(आदमी तो एक दांत वाला ही भला होता है)
दुल्हन चुप रही, बूढ़े ने सोचा कि शायद सुना नहीं होगा, उसने अपनी बात फिर दोहराई,
इस बार दुल्हन से भी रहा नहीं गया, उसने घूँघट से अपना पोपला चेहरा आज़ाद किया और बोल पड़ी
” हाडा का के लाड”(हड्डियों से क्या लाड/प्रेम करना)
बूढ़ा इस रूहानी खूबसूरती और साफगोई को देखकर अब सकते में था और गांव के नाई को कोस रहा था जिसने ये रिश्ता कराया था।
दादी बोली, राम मिलाई जोड़ी।
उनके पास अपने राजस्थान के राजाओं और ठाकरों(ठाकुरों) के किस्से भी बहुत थे। क्या शान- शौकत थी उनकी एक जमाने में।
कई तो व्यस्तता और शान के कारण, अपनी शादी में खुद शिरकत तक नहीं कर पाते थे, बस एक तलवार भेज दी, दुल्हन तलवार को ही पति स्वरुप मानकर फेरे ले लेती थी।
ये रीत कितनी प्रचलित थी, ये तो पता नहीं, पर दादी ने कहा था,तो ऐसे वाकये जरूर हुए होंगे।
ऐसे ही, बीकानेर के एक कुलीन ठाकुर साहब को विचरण करते हुए, छोटे कस्बे या गांव की एक गरीब राजपूत कन्या पसंद आ गयी।
फिर क्या था, उसे भी अपनी पत्नियों में शुमार करने की जिद ठान ली।
रिश्ता भेजा गया, लड़की के पिता का तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, इतने कुलीन परिवार से रिश्ता आया था।
ठाकुर साहब ने तलवार नहीं भेजी, वो अपनी अंकुरित यौवना पत्नी की झलक फिर देखने का लोभ संवरण नहीं कर सके। खुद शामिल हुए अपनी शादी में।
ससुराल की ड्योढ़ी ज्यादा ऊँची नहीं थी, घोड़े पर सवार, प्रवेश करते वक्त किसी ने कहा,
“ठाकरां, थोड़ो नीचो होल्यो”(ठाकुर साहब थोड़ा झुक जाइये)
ठाकुर साहब भी थोड़ी ग्लानि से, बोल ही पड़े, “ओर कित्ता नीचा होवां, बीकानेर नीचो होकर जैतसर तक तो आग्यो आज”
( और कितना झुकें, आज बीकानेर झुकता हुआ जैतसर तक तो आ ही गया)
पर क्या करें बेचारे दिल के हाथों मजबूर थे।
दादी के पास हर मौके के मुहावरे थे,
हमारे से कोई मूर्खतापूर्ण कार्य होने पर , वो फौरन बोल पड़तीं
“बुद्धि बिना ऊँट उघाड़ा फिर ह फेर तेरी के बात ”
( ऊंट भी बुद्धि के बिना नंगे फिरते हैं फिर तुम्हारी क्या बात)
कभी खाना अच्छा बनने पर बहुओं को इसका श्रेय न देने की प्रवृति पर,
” घी सुधारअ खिचड़ी, नाम भु को होव”
(खिचड़ी में स्वाद तो उसमें घी डालने पर आया है और प्रशंसा बहू को मिल रही है)
अपने मन पसंद का पकवान खाते वक़्त,
“सीरो खाता दाढ़ घस तो घसवा दे, अपणो काम बणअ लोग हँस तो हंसवा दे”
(हलवा खाते वक़्त अगर जबड़े के अंदर के बड़े चौड़े दांत घिसते है तो घिसने दो, अपना काम होना चाहिए, लोग हंसे भी तो हंसने दो)
दादी की अनुसार बाहुबली उस वक़्त भी थे, एक बार गांव के चौधरी को एक गरीब जाट का ऊँट पसंद आ गया। उसे बेचने को कहा, इंकार करने पर , रात के अंधेरे में ऊँट गायब करा दिया गया।
खोजी को पांव के निशान पहचानने को कहा गया । वो आते वक्त पहले चौधरी साहब की हवेली में हाजिरी लगा कर आया था।
जाट के घर पहुँच कर पदचिन्हों को देख कर कहा, कि कोई बिल्ली के पांव के निशान हैं, वो ऊंट की जेवड़ी(रस्सी) पकड़ कर अपने साथ ले गयी है।
इस पर जाट की प्रतिक्रिया अपनी जाटणी की ओर देखकर ये हुई
“जाट कह्व सुण जाटणी, ऐंइ गाम म रहणो, ऊँट बिलैया ले गई और हाँ जी , हाँ जी केहणो”
(जाट अपनी जाटनी को कह रहा है कि रहना इसी गांव में है, ऊंट को अगर बिल्ली अगवा करके ले गयी है तो भी हाँ जी हाँ जी कहने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है)
दादी के द्वारा सुनाई गई ये उक्तियाँ कौन भूल सकता था भला,
“चालणो रास्ता स चाए फेर ही हो”(चलना रास्ते से चाहे कुछ फेर ही हो)
“रहणो भायां म चाए बैर ही हो”(रहना भाइयों के बीच चाहे मनमुटाव ही हो)
“बैठणो छायाँ म चाए कैर ही हो”(बैठना पेड़ की छांव में चाहे कैर का पेड़ ही क्यों न हो)
“खाणो मां मायत क हाथां, चाहे झेर ही हो”(खाना माँ के हाथों चाहे जहर ही क्यों न हो)
इस तरह की छोटी छोटी सहज बातों में कितनी गूढ़ बातें भी गर्भस्थ हैं, उस वक़्त तो सिर्फ सुनते थे, उनके निहित मर्म से अनभिज्ञ थे,
उन्हें भी मालूम था कि ये बचपन जब बड़ा होगा तब उनकी इन बातों को समझेगा, इसलिए वो नन्हे मस्तिष्क में ये छोटे छोटे ज्ञान रूपी दानें डालती जाती थीं।