शिव कुमारी भाग १२
दादी घर के पेड़ पौधों की भी माँ ही थीं। सारे उनके हाथ के ही लगाए हुए थे या फिर उनकी देख रेख में लगे थे। परिवार बढ़ने पर जब ठाकुरबाड़ी के एक दो कमरे कम पड़ने लगे तो फिर उन्होंने कोठी वाले घर में रहने का फैसला लिया होगा शायद।
उस वक़्त ही इन पेड़ पौधों ने भी जन्म लिया होगा। अमरूद, आम, पपीते और जामुन के पेड़ तो घर के थे ही, बाहर का नीम का पेड़ भी सगे से कम न था।
घर की पिछली दीवार के बाहर बेर का पेड़ थोड़ा सौतेला जरूर था, एक तो उसके फल ज्यादा मीठे नहीं थे और वो था भी बड़े दादा जी की जमीन पर। इसलिए वो इसे अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती थीं। हाँ कोई बाहर वाला, पिछली दीवार पर चढ़ कर फल तोड़ रहा तो वो हल्ला जरूर करती कि दीवार से उतरो।
नीम के पेड़ की बात अलग थी, वो किसी की जमीन पर नहीं था, उसे दादी ने फिर गोद ही ले लिया। उसकी दातुन उनके बचे खुचे दांतो को मजबूत रखने के लिए रोज हाज़िर रहती, बस उसके अगले सिरे को एक सेर के वजन से थोड़ा कूटना होता था, ताकि दादी उसको थोड़ा नरम होने पर चबा पाएं।
कभी कभी एक आध हिलते दांतों पर उसका घस्सा थोड़ा तेज लगता तो बेचारे हरि डॉक्टर ही गालियां खाते।
“रामार्यो, मोटो कसाई ह, इबकी बार दांत के काड्यो, मरज्याणो आन भी हला दिया, क्याहीं जोगो न भोगों”
( मूर्ख , मोटा कसाई है, इस बार जब दाँत निकाला , तो इनको भी हिला दिया कमबख्त ने, किसी काम का नहीं है)
मुझे पूरा विश्वास है, कि हरि बाबू की दिवंगत आत्मा, अब उनके ये उद्गार जानकर, इसे अन्यथा नहीं लेगी, अपने जीते जी भी कई बार ये सब सुन कर ,वो मुस्कुराते ही तो थे बस!! अपनी माँ तुल्य महिला की बात का भला कौन बुरा मानता है !!!
एक बार नीम के पेड़ के मोटे तने से, एक सफेद स्राव शुरू हो गया, जानकार लोग इससे औषधि भी बनाते थे, इसको इकट्ठा करने के लिए जैसे ही पेड़ के तने पर कील ठोकी गयी, ताकि कोई बर्तन लटकाया जा सके, दादी ये देख कर गुस्से से फट पड़ी कि इतनी तेज कोई कील ठोकता है क्या?
नीम के पेड़ की दर्द भरी सिसकारी उनके कानों में पहुँच गयी थी।
इसके तिनके, उनको कृत्रिम छींक दिलाने अक्सर घर भी तो आते रहते थे।
अमरूद का पेड़ उनके सबसे करीब था। उसके फल भी मीठे थे और उसके अंदर का मांसल भाग भी दादी के मसूड़ों से मिलता जुलता गुलाबी सा रंग लिए होता था।
हम बच्चों को अधिकतर डांट इसी पेड़ के कारण मिली थी। इसपर चढ़ते ही, ये दादी को फौरन खबर भिजवा देता।
दादी के साथ इसका मानसिक दूरसंचार , इसके करीब आने से ही शुरू हो जाता। दादी फिर बरामदे से ही बोल उठती,
“रामर्या , उतर , नहीं तो या लाठी सिर पर मेल देस्यूँ”
(मूर्ख, उतरो, नहीं तो ये पकड़ी हुई लाठी फिर सर पर ही पड़ेगी)
इस पेड़ के साथ, हमारा छत्तीस का आंकड़ा चलता ही रहता था। एक बार गुस्से में मैंने इसकी भूरी छाल चबा डाली थी, उसकी हड्डियां दिखाई पड़ने पर बहुत अफसोस भी हुआ। चुपके से तब नजर बचाकर उस जगह पर रोली और चीनी लगा दी।
दादी भी तो कभी चोट लगने से खून निकलने पर ऐसा ही करती थी।
राहत की बात ये थी कि उसको खून नहीं निकला था।
दो चार दिन डर डर के गुजारे कि कहीं दादी की नज़र मेरे इस अत्याचार पर पड़ गयी तो फिर खैर नहीं थी।
हमारे चोरी छुपे आक्रमण के बाद भी, जब काफी पके फल इस पेड़ पर बच जाते , तो एक दिन दादी,अपनी निगरानी में उनको अपने विश्वस्तों के हाथ तुड़वा कर एक बांस की बनी टोकरी में रखकर सबको बाँट देती, एक नरम पका हुआ अमरूद उनके दांतो से अदब से पेश आता हुआ दिखता था। बड़ी मालकिन को सब खुश रखना चाहते थे।
पपीते के पेड़ से हमें ज्यादा सरोकार भी नहीं था। इसको खाने में बड़ा झमेला भी था, चाकू से काटो, काले बीज हटाओ, काटते वक़्त हाथ भी इसके रस से गीले होते थे। एक बार इसका बीज चबा लिया था, बड़ा अजीब सा स्वाद काफी देर तक जीभ पर बैठा रहा था।
दादी जब किसी पके पपीते को देखकर कहती थी कि
“यो पीपीयो तेर दादोजी न काट कर देस्यूं”
(ये पपीता तुम्हारे दादाजी के लिए है)
तो हम भी उदार होकर ज्यादा हील हुज्जत नहीं करते। बल्कि, उसे तोड़ने में मदद ही करते। ये करते वक़्त, पास के जामुन के पेड़ से कच्चे पक्के फल पर हाथ साफ करते वक़्त , वो भी नज़र इधर उधर कर लेती थीं।
आम का पेड़ थोड़ा बूढ़ा हो चला था, ज्यादा फल नहीं आते थे। कभी कभी दो साल बाद कुछ फल लगते भी तो हम उसे यूँ ही छोड़ देते।
हमारे पास विकल्प भी मौजूद था , पड़ोसी के आम का पेड़, जो उनका कम हमारा ज्यादा था। उसकी डालियां हमारी ओर ज्यादा झुकी हुई थीं। गर्मियों में तेज हवा चलने पर कच्चे आम हमारी खपरैल और टीन की बनी छत पर आवाज़ करके गिरते थे।
उसमें से कुछ ही भलमनसाहत दिखाकर वापस किये जाते। हमारा भी तर्क था कि इन आमों ने गिरकर हमारी खपरैलों को क्षति पहुँचायी है, इसका मुआवजा इसी तरह तो वसूल होगा न।
दादी की मौन स्वीकृति हमारी इस भावना का समर्थन करती दिखती थी।
दादी दूसरे दिन जब पड़ोसी के यहाँ ताश खेलने जाती, तो पड़ोस की ताईजी ताश बांटते वक़्त जब ये पूछती कि कल आपकी तरफ आम तो कुछ ज्यादा ही गिरे थे , उनको वापस कम ही मिले।
दादी पत्ते उठाते वक़्त इस बात से अपना पल्ला कुछ इस तरह झाड़ लेती थी,
” म तो घणी बोली, कि रामर्या आम पाछा दियाओ, पर आज काल का टींगर बात मान ह के”
(मैं तो बोली थी कि सारे आम वापस कर दो, पर आज कल के बच्चे किसी की सुनते हैं क्या?)
ये कहक़र इस घटना को रफा दफा किया जाता।
पहली बार कोई हवा तेज चली थी क्या?, सालों से इसी तरह चलती आयी थी।
बहरहाल, पूछने की औपचारिकता पूरी करनी थी , सो हो गयी और दादी भी हम सब पर सारा दोष चढ़ा कर अपना सारा ध्यान अब हाथ के पत्तों को दे चुकी थीं।।।