शिलालेख
मैं अगर थोड़ी मजहबी नहीं होती
तो अपनी कब्र पर
एक पत्थर लगवाती
शिलालेख जैसा कुछ
और उनसब के नाम भी
जिनसे मैं प्रेम करती थी
और बदले में बस चाहती थी
प्रेम, अपनापन स्नेह
पर कभी छली गयी
कभी दुत्कार दी गयी
और छोड़ दी गयी
ज़हन के उन अंधेरो में
जिन्होंने मेरी रूह में
भर दी स्याही
और मेरे मन की कोठरी
में लगे हुए उम्मीदों के
रोशनदान भर दिए
ख्वाबों के टूटे टुकड़ों से
मेरी हर मुस्कान जो
दिल से तो नही उठी
पर होंटो पर
चीख चीख कर
दम तोड़ती गयी
हर मुस्कुराहट का हिसाब,
हर आंसू के दाग
हर घाव की टीस
उन पत्थरो पर उकेरवाती
अगर मैं थोड़ी धार्मिक न होती
और माफ करना
मेरी फ़ितरत में न होता