शिक्षा
डारविन के विकास वादी सिद्धांत के दृष्टिकोण से अपने बच्चों को दूध पिलाने और प्रशिक्षण देने वाले मैमल सबसे बाद में आए । मनुष्य इस कड़ी में सबसे नवीन मैमल में से एक है । चिंपाजी, गुरीला, उरांगटुआन, हमारे समानांतर विकसित होने वाले मैमल है, परन्तु हमने जीने के लिए प्रकृति को आकृति देने का चुनाव किया और शिक्षा हमारे लिए माँ की गोदी से आगे बढ़कर एक जीवन पथ बन गई , और हमारे मानव होने के अनुभव से जुड़ गई ।
मनुष्य के पास क्योंकि भाषा है, इसलिए वह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी संजोता चला जा सकता है, और प्रत्येक नई पीढ़ी पुराने को आत्मसात् कर कुछ नया जोड़ सकती है।
मेरे विचार में शिक्षा के दो प्रयोजन है, एक तो मनुष्य जीवन को सरल बनाना , जो हम तकनीक, औषधि विज्ञान आदि से कर सकते है, दूसरा है बौद्धिक तथा मानसिक विकास द्वारा मनुष्य जीवन को सुंदर तथा सार्थक बनाना , जिसमें सारी कलायें , दर्शन, शुद्ध गणित, समाज शास्त्र आदि आते हैं ।
हमारे पास आज जो शैक्षणिक ढाँचा है वह अमेरिका और इंग्लैंड से आया है , यह हम जानते है, परन्तु इससे बाहर निकलने का तरीक़ा अभी तक हमें समझ नहीं आया, और यह यही दर्शाता है कि हमारे समाज में मौलिक चिंतन का कितना ह्रास हुआ है । हम जो भी उपाय सुझाते हैं, वे या तो उन्हीं से उधार लिए हुए होते है, या फिर एकदम सतही होते हैं , परिणामस्वरूप, मनुष्य का सबसे सुखद अनुभव शिक्षा, एक बोझ, तुलनात्मक संघर्ष, आर्थिक चुनौती, तथा अभिमान का विषय बनकर रह गई है ।
क्या हम इतने दीन हीन हैं कि हमारे पास इन समस्याओं का समाधान नहीं है ? मेरे अनुसार उपाय हैं , परन्तु निश्चय नहीं है ।
सबसे पहली बात है, शिक्षा संभव है , क्योंकि भाषा है। अर्थात् भाषा और ज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । शिक्षा निश्चय ही अपनी मातृभाषा में दी जानी चाहिए, विज्ञान और तकनीक को हिंदी में न ला सकना , हमारे निश्चय और परिश्रम की कमी को दर्शाता है । अपनी भाषा में आगे बढ़ने की बजाय हम पिछड़ रहे है, तो क्या जो मार्ग पीछे जा सकता है , वह आगे भी तो जा सकता है ?
हमें अपने भारतीय चिंतन से सशक्त माँ के महत्व को वापिस लाना चाहिए । पुरूष और स्त्री के आर्थिक निर्माण की नीतियाँ भिन्न होनी चाहिए । माँ बच्चों को बड़ा कर सकने के बाद धनोपार्जन तथा उच्च शिक्षा के लिए वापिस घर से बाहर आ सके इसकी व्यवस्था होनी चाहिए ॥ आज हमारी सारी आर्थिक नीतियाँ पूंजीवाद को बल देती हैं, जो पूर्णतः अमेरिका का प्रभाव है, और हमारे पारिवारिक ढाँचे और माँ के प्रकृति प्रदत्त महत्व को तहस-नहस कर रहा है । हमें अमेरिका नहीं भारत बनना है ।
दुनिया भर में शैक्षिक संस्थान पूंजीवाद की चपेट में आ गए हैं । विश्वविद्यालयों को एक कारपोरेशन की तरह चलाया जाता है। प्राइवेट स्कूलों की फ़ीस हज़ारों डॉलर है, गरीब अमीर, शिक्षित अशिक्षित का अंतर बढ़ाने की यह गहरी चाल है । भारत को इससे बचना चाहिए । क्या भारतीय सरकार इतनी असमर्थ है कि वह अपने बच्चों को निःशुल्क शिक्षा नहीं दे सकती ? निश्चय ही दे सकती है , परन्तु हमारे चिंतन की अस्पष्टता तथा भ्रष्टाचार हमें आगे बढ़ने नहीं देते ।
अंतिम प्रश्न है, शिक्षा का उद्देश्य कैसे पूरा किया जाए ? मेरे विचार में बच्चा जो सीखना चाहे उसे वह सीखने की स्वतंत्रता दी जाए, ताकि वह प्रकृति प्रदत्त अपने स्वभाव के अनुसार जी सके, उसकी उत्सुकता तथा सपनों को कुचला न जाए । आज हममें से नब्बे प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनको अपना सपना स्मरण नहीं , वह क्या बनना चाहते थे, उन्हें याद ही नहीं , यह मनुष्य जीवन का अपमान है ।
दूसरी बात है, हमारी शिक्षा हमें चिंतन की क्षमता दे । पश्चिम ने सत्य पाने के इंपीरिकल तरीक़े को विकसित कर गणित को इतना विकसित कर दिया कि चाँद सितारे, और ए. आइ तक तो पहुँचा ही , अपितु मन की गहराइयों तक भी पहुँच रहा है ।
हमें सबसे पहले अपने विद्यार्थियों को यह सिखाना चाहिए कि चिंतन का क्या इतिहास है । कैसे एक के ऊपर दूसरा विचार खड़ा होता है । हम हर विषय में उन्हें बने बनाए फ़ार्मूले दे देते हैं, परन्तु यह बने कैसे , यह विचार कैसे विकसित हुआ, इस श्रृंखला से वंचित रखते हैं , परिणामस्वरूप हमारे बच्चे सोचना नहीं सीख पाते, वह जुगाड़ को प्रतिभा का पर्याय समझ बैठे है।
हम महान चिंतन के उत्तराधिकारी है, परन्तु यह चिंतन हमारे युग तक अभी तक अपने पूरे आकार में पहुँच नहीं पाया । आवश्यकता है उसे पुनर्जीवित करने की । हमारे पास विकसित गणित, दर्शन, भूगोल, औषधि विज्ञान, साहित्य, संगीत, चित्रकला आदि रहे है, परन्तु यह चिंतन कैसे विकसित हुआ , उस तकनीक का इतिहास जन साधारण से खो गया है, आवश्यकता है उसे ढूँढ कर शिक्षा प्रणाली में लाने की ।
भारतीय शिक्षा पद्धति का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग रहा है, चरित्र निर्माण , परन्तु पूँजीवादी शिक्षा पद्धति के लिए यह अनावश्यक है , परन्तु भारत ने सदा से सादगी, स्नेह , ईमानदारी,उदारता, सत्य आदि को मनुष्य की योग्यता का प्रमाण समझा है , आज इस पक्ष को स्कूलों में पुनः विकसित करने की आवश्यकता है , ताकि बढ़े होकर यही बच्चे इसे अपनी जीवन पद्धति में ढाल सकें।
संक्षेप में मैं इतना ही कहूँगी कि , भारत की शिक्षा पद्धति ऐसी हो जिसमें इंपीरिकल तरीक़े तथा भारतीय चिंतन पद्धति दोनों को समझ कर सत्य समझने के लिए नई चिंतन पद्धति का विकास हो सके , जिससे संपूर्ण मानवता लाभान्वित हो सके ।
—— शशि महाजन