शिक्षक – चुनौतियों का सामना करें नवाचार अपनाकर
वर्तमान संदर्भ में एक बालक से चहुँओर से अपेक्षा की जाती है कि वह ये बने, वो बने घर में, समाज में मित्रों में विद्यालय में यहाँ तक की राष्ट्र की भी उससे यही अपेक्षा होती है कि वह श्रेष्ठ परीक्षा परिणाम देते हुए अच्छा डॉक्टर, इंजिनियर, तकनीशियन, प्रशासक, व्यवसायी बने। उसकी सफलता या असफलता का मानदण्ड उसके द्वारा ग्रहण की गई पोजीशन, स्थान, पद, प्रतिष्ठा से लगाया जाने लगा है, सच यह है कि पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान यह समस्त भौतिकतावादी व्यवस्था से जुड़े है। आज सर्वाधिक आवश्यकता है तो वह यह है कि बालमन पर जीवन मूल्य, संस्कार, जीवन चरित्र, त्याग, परोपकार जैसे गुणों का बीजारोपण हो तभी तो वहः
’’अयं निजः परावेती गणना लघुचेतषाम्
उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।’’
सूक्ति की द्वितीय पंक्ति के योग्य बनकर अपने विचारों को विकसित कर सकेगा, आज उक्त सूक्ति की पहली पंक्ति पर ही हमारा अधिकांश ध्यान केन्द्रित होकर रह गया है जो व्यक्ति को केवल यह मेरा, वह पराया जैसी अवधारणा सिखाता है, परिणामस्वरूप उसकी दुनिया केवल स्वहित पर संकेन्द्रित हो गई है, जो कहीं न कहीं एक उच्च अर्थव्यवस्था, जीवन स्तर, सुदृढ़ता को तो विकसित कर सकता है लेकिन ऐसे समाज में संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य, जीवन चरित्र, त्याग, परोपकार जैसे मूल्यों के लिए कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता परिणाम सामने हैं। ऐसे व्यक्ति द्वारा जीवन की सर्वोच्च ऊँचाई पर पहुँचने के बाद भी माँ-बाप को जीवन के अंतिम क्षणों में एकाकी रहने को मजबूर होना पड़ता है। उस बेटे को माँ-बाप के साथ दो पल बैठकर बातें करने का समय तक नहीं मिल पाता। जीवन के अंतिम क्षणों में वृद्ध हो चुके माँ-बाप सात-समुन्दर पार गए उस बेटे की मूरत देखने तक को तरस जाते है जिन्होंने उसके पैदा होने से पहले ही उसे लेकर आँखों में तरह-तरह के ख्वाब देखना आरंभ कर दिया होता है और उसके बड़े होने के साथ-साथ उन ख्वाबों को पंख लगना आरंभ हो जाता है।
आज एक शिक्षक के समक्ष दोहरी चुनौती है, प्रथम उसे अन्य विद्यालयों और विषयों की तुलना में श्रेष्ठ परिणाम देना है तो दूसरी तरफ शिक्षक धर्म का निर्वाह करते हुए अपने विद्यार्थियों में चारित्रिक गुणों का इस कदर बीजारोपण करना है कि उनकी जड़ें अत्यंत गहरी चली जाऐं, फिर चाहे जीवन में कितने भी आँधी-तूफान क्यों न आऐं लेकिन उसके द्वारा प्रदत जीवन मूल्य की जड़ें दूब (दूर्वा) की भाँति सदैव हरी रहे। उनमें संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य, चरित्र, त्याग के प्रति सम्मान की भावना रहे। यह सही भी है कि इंसान कितनी ही ऊँचाईयों को छू ले लेकिन दुःखी व्यक्ति को देखकर उसे दुःख न होता हो, माँ-बाप और गुरूजनों के प्रति उनके सम्मान में उसका शीश न झुके तो उसकी उन्नति किसी काम की नहीं रह जाती। ऐसे व्यक्ति पर निम्न पंक्तियां सटीक बैठती हैंः-
‘‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।’’
आज विद्यार्थी और युवाओं में अनुशासनहीनता की प्रवृति बढ़ती जा रही है। इसका एक सीमा तक समाधान शिक्षकों के हाथ में ही है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक विशिष्ट प्रकार की योग्यता छुपी हुई है, उस योग्यता को पहचान कर सही दिशा देने का कार्य भी शिक्षक ही कर सकता है, इसके लिये कुछ प्रयोग काम में लाये जा सकते है जैसे पूरी कक्षा या विद्यालय के छात्रों को एक स्थान पर एकत्र कर उनसे पूछा जाए कि कौन-कौन बच्चे कविता, कहानी, चित्रकला, निबंध, पत्र-लेखन इत्यादि में रूचि रखते हैं। प्रत्येक विधा के बच्चे अपनी रुचि के विषय के बारे में सुनकर सामने आ जायेंगे। जिस विधा में जो छात्र रूचि रखते हैं उनको कहा जाए कि अपनी रूचि की विधा में मौलिक रचना कर लायें और इस प्रकार प्रतिदिन प्रार्थना सभा या किसी विशेष बाल सभा में मौलिक रचना का प्रस्तुतीकरण करवाया जाकर छात्रों का मनोबल बढाया जाए। ऐसा करने से जहाँ बच्चे में रचनात्मकता का विकास होगा वहीं वह खाली समय में चिंतन प्रक्रिया से गुजरेगा और अनुशासनहीनता पर भी कुछ हद तक अंकुश लग सकेगा। ऐसा ही प्रयोग बच्चों के मनपंसद के खेल में भी किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश आज बच्चों की आन्तरिक प्रतिभा को पहचाने बिना उनसे उनकी अरुचि के क्षेत्र में प्रतिभा प्रदर्शन की अपेक्षा की जा रही है। यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे- मोर को तैराकी और बिल्ली को हवा में उड़ने के लिये प्रोत्साहित करना। प्रसिद्ध प्रबंध विचारक अब्राह्म मास्लो का अभिप्रेरणा का सिद्धान्त इसी बात पर जोर देता है कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति स्वंय संतुष्टि के शिखर पर नहीं पहुंच जाता तब तक उसे पूर्ण रूप से प्रेरित नहीं माना जा सकता और वह अपनी संपूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं कर पाता। प्रत्येक बालक में भिन्न-भिन्न प्रकार की असीम योग्यता छिपी है जिसे पहचान कर आगे लाने की जटिल चुनौती शि़क्षक के समक्ष है।
विद्यालय परिसर एवं वातावरण के प्रति विद्यार्थियों में अनुराग उत्पन्न करना भी आवश्यक है। इसके लिए सम्पूर्ण विद्यालय की छात्र संख्या को अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर प्रत्येक समूह को विद्यालय परिसर के एक कोने को गोद दे दिया जाए और विद्यार्थियों के उस समूह से उस कोने की साज-सज्जा, साफ-सफाई, वालपेन्टिंग, फूलों की क्यारी, वृक्षारोपण इत्यादि के लिए प्रेरित किया जाए। साल के अन्त में विभिन्न कोनों का मूल्यांकन कर श्रेष्ठ समूह का चयन कर प्रोत्साहित किया जाए ऐसा करने से बच्चों में पर्यावरण, स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ उस परिसर के प्रति अनुराग और अपनत्व का बोध उत्पन्न होगा जो शायद वर्तमान परिवेश में आवश्यक भी है।
प्रायः जन्मदिन के अवसर पर विद्यार्थियों द्वारा चाकलेट बाँटनें, मिठाई लाने की परंपरा बलवती होती जा रही है। यह प्रवृति यद्यपि बुरी तो नहीं कही जा सकती लेकिन इसका खुले मन से समर्थन भी नहीं किया जा सकता। इसके उलट यह हो सकता है कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने जन्मदिन के अवसर पर विद्यालय प्रागंण में वृक्षारोपण करे और साल भर तक उसकी देख रेख करे। विद्यालय प्रागंण में जगह कम पड़ जाए तो अलग-अलग स्थानों पर क्यारियाँ बनाकर उनमें तुलसी जी का पौधा जन्मदिन पर लगाया जा सकता है।
विद्यालय में आवश्यक फंड का अभाव भी विद्यालय विकास में अवरोधक है। इस संदर्भ में यह विकल्प हो सकता है कि प्रतिवर्ष एल्युमिनाई मीट आयोजित की जाए और उन पूर्व छात्रों से विद्यालय विकास में सहयोग लिया जाए जो आरंभिक शिक्षा ग्रहण कर आज किसी योग्य बन सके हैं, ऐसा करने से किसी के आगे फण्ड के लिये हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा, दूसरी ओर वर्षों बाद उन पूर्व छात्रोें को विद्यालय प्रशासन याद करेगा तो उनका जुड़ाव व लगाव पुनः विद्यालय से हो जायेगा।
कुल मिलाकर इन तमाम कार्यो के लिए पहल शिक्षक को ही करनी होगी। आज भी अनेकों अर्जुन और विवेकानंद ऐसे गुरू द्रोण और रामकृष्ण परमहंस की तलाश में हैं जो उनकी सही प्रतिभा को पहचान कर उसे तराश सके और उनको मानव से महामानव बना सकें लेकिन यह सभी कार्य धैर्य, संयम एवं पूर्ण मनोयोग से कारित करें तभी सुखद परिणाम सामने आ सकते हैं। केवल किसी के कहने या कहीं पढ लेने मात्र से आमूल-चूल परिवर्तन संभव नहीं है, यह भी ध्यान रखना होगा कि कोई नवाचार करते समय आवश्यक नहीं है कि अन्य भी आपका साथ दें, हर नए कार्य का विरोध आरम्भ में होना स्वाभाविक है और यह मानव की प्रकृति का हिस्सा भी है, लेकिन जिनके मन में कुछ नया कर गुजरने का जज्बा होता है वह अकेले ही चल पड़ते हैं बिना यह सोचे कि ऐसा करने से कौन क्या सोचेगा?, क्या कहेगा? और शिक्षक का तो एक मात्र उद्देश्य छात्र के भीतर छिपी बहुआयामी प्रतिभा को पहचान कर उसके व्यक्तित्व को उभारना है। खेल-खेल में, बिना कोई दबाव महसूस किए छात्र कैसे नया कुछ सीखें यही शिक्षक का फोकस होना चाहिए, क्योंकि शिक्षक एक पथप्रदर्शक, अच्छा मित्र, फिलॉसोफर, शुभचिंतक भी है, जो स्वंय जलकर भी दूसरों को रोशनी देता हैं।
डॉ. सूरज सिंह नेगी
लेखक, कहानीकार एवं उपन्यासकार
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