शिकारी और प्रेम
प्यासी हिरनी
वन वन को झूमै
अम्बु चाह में
धरा से नभ
तलक पसरता
घोर तम है
निर्विकार सी
आकृति बनाती जो
उड़ी रेत से
देख उसको
आतुर डालने को
शिकारी फंदा
फाँस पड़ी
ज्यों एक अनुपम
छबि प्रकटी
उत्तरीय को
सभाल बाहुँ पर
शनै लजाती
देख रूपसि
शिकारी भाल हुआ
अवनत था
कर प्रणाम
बोला मोहिनी कोन
इस वन में
नर आशा से
उत्पन्न मुग्धा मैं हूँ
आशा दायिनी
एंकात में मैं
निराशा हर प्रेम
राग रचती