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12 Sep 2024 · 4 min read

शाश्वत प्रेम

मनुष्य अपने जीवन का अर्थ समझने की अभिलाषा के साथ जन्मा है , जीवन बहुत छोटा है , और वह मिटना नहीं चाहता, भूल जाता है कि वह हमेशा नहीं था , उसके होने न होने से कायनात पर कोई असर नहीं पड़ता , परन्तु यह अभिलाषा है तो वह अर्थ ढूँढेगा ही , और यह भी सच है कि वह इस जिज्ञासा को कैसे समझता है, उसी पर उसका जीवन दर्शन, उसका चरित्र निर्भर करेगा ।

प्राचीन ग्रीक सभ्यता में मृत्यु के साथ समाप्ति का विचार प्रबल था तो वे जीवन भर युद्ध, लूटपाट, अपहरण आदि में ही जीवन की सार्थकता समझते थे । इजीपट के लोग मृत्यु के बाद फिर से जीवन की प्राप्ति में विश्वास करते थे तो इसलिए इतने बड़े बड़े पिरामिड बना डाले , ईसाईयत ने मृत्यु के बाद न्याय की कल्पना की तो पोप ग्रेगोरि क्षमापत्र
बेच सके , मुसलमानों की चित्रकला में जन्नत के नज़ारों का वर्णन है , कहने का अर्थ है , किसी भी सभ्यता का शाश्वत प्रेम क्या है , उसका उसकी जीवन शैली पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।

मिथकों के लेखक कौन थे कोई नहीं जानता , परन्तु वह तत्कालीन सामूहिक भय, जिज्ञासा, कल्पना को दर्शाते हैं , यह तो स्पष्ट है , यह मिथकीय चरित्र हज़ार कमज़ोरियों के शिकार हों परन्तु वह मरते कभी नहीं , और कभी कभी मुझे लगता है, उस शाश्वतता की खोज करते करते हम रोबोटिक और ए . आई तक आ पहुँचे हैं । आज हमारा बनाया हुआ बनावटी इंसान, हमसे अधिक बौद्धिक चपलता लिए हमारे समक्ष खडा है , यह उस मिथक की कल्पना का साक्षात्कार नहीं है , तो क्या है ? मनुष्य की इस अद्भुत यात्रा के सामने सिर आदर से झुक जाता है । यह यात्रा हमें हमारे अतीत के साथ जोड़ती है तो भविष्य के साथ भी ।

लगभग चार हज़ार वर्ष पूर्व मेसोपोटामिया में महाकाव्य गिलगमेश लिखा गया , जो अकेडियन भाषा में क्यूनिफार्म लिपि में है । इसका नायक गिलगमेश अपना मित्र एनकिडु की मृत्यु पर विचलित हो अमरत्व की खोज पर निकलता है , लंबी यात्रा के पश्चात जब अपने नगर लौटता है और इसकी मज़बूत दीवारों को दूर से देखता है तो समझ जाता है , उसका अमरत्व नगरों के निर्माण में हैं , जिसे वह आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाएगा ।

भारत में हम स्त्री पुरुष के अमर प्रेम की चर्चा करते हैं , जो कम से कम सात जन्म तो चलता ही है , और इसी विचार के चलते हमने सती प्रथा चलाई, विधवाओं पर दिल दहलाने वाले अत्याचार किये , और ऐसे समाज का निर्माण किया जो कुंठाग्रस्त था , और आज भी हम उसके परिणाम भुगत रहे हैं । आशिक़ी पर शायरी करके हमने उसे इतना महत्व दे डाला कि चिंतन के शेष विषय कविता में उतने नहीं आए जितने आने चाहिए थे । आप यदि किसी जीव वैज्ञानिक से पूछेंगे तो वह कहेगा, प्यार का मुख्य कारण गंध है , और यह बार बार होता है , प्रकृति निरंतरता बनाए रखने के लिए आपके अंदर यह भाव भर देती है , परन्तु हमें इस सांसारिक प्रेम से, , कुछ और अधिक चाहिए था, इसलिए हम इसे अजर अमर बनाने लगे , हमने करवाचौथ जैसे हास्यास्पद त्यौहारों का अविष्कार कर डाला ।

सच तो यह है कि मात्र विचार शाश्वत हैं । श्री कृष्ण जब अर्जुन से कहते है, जब यह संसार नहीं था , तब भी तूं और मैं थे , जब यह संसार नहीं रहेगा , तब भी तूं और मैं रहेंगे , इसलिए तूं सत्य के लिए लड़, वह उन शाश्वत जीवन मूल्यों की बात कर रहे हैं, जो गणित की तरह हैं , वह शाश्वत है, उनका जन्म या मरण नहीं है, उन्हें सृष्टि में मात्र देखना और समझना है । गणित का अविष्कार नहीं करना , वह हमारे चारों ओर है, हमें उसे समझना है । जिस तरह गणित के नियमों से आइंस्टाइन ब्रह्मांड को समझने का प्रयास करते है , और उस समझ के आधार पर हम नई तकनीक का निर्माण कर लेते हैं , वैसे ही यह जीवन मूल्य हमारे भीतर छिपे है, मन की शुद्धि से हम उनको समझ सकते है, और उनके आधार पर एक सुखी , स्वतंत्र समाज का निर्माण कर सकते है , तभी हम मनुष्य की बनाई सभ्यता को शाश्वत बनाने की कल्पना को सकार कर सकते है। स्त्री पुरुष के संबंध, परिवार के संबंध, पड़ोसी से संबंध, अंतरराष्ट्रीय संबंध, सभी इन्हीं नियमों पर आधारित होने चाहिए, बच्चे की पहली शिक्षा जीवन मूल्यों की होनी चाहिए, इस नींव के बिना हमारी सभ्यता, हमारा अस्तित्व हमेशा ख़तरे में बना रहेगा । आज हमारा अस्तित्व युद्धों से घिरा है, हमारी ही बनाई तकनीक हमसे अधिक बलशाली हो उठी है , हमें शाश्वत होना था , परन्तु यहाँ तो करोड़ों लोगों का एक क्षणभंगुर जीवन भी संकट में है , पीड़ा में है ।

कुछ लोग यह सोचते हैं वह अकेले शाश्वत हो सकते है , इसलिए वह आवश्यकता से अधिक धन जोड़ लेते है, तकनीक के द्वारा दूसरे ग्रह पर जाने की बात सोचते है , और इससे अधिक हास्यास्पद कुछ हो ही नहीं सकता । अकेला गिलगमेश कुछ नहीं है , अकेला इलोन मस्क भी कुछ नहीं है , यहाँ तक कि अकेला राम भी युद्ध नहीं जीत सकता, मशीनें और धन , हमारी कल्पना की उपज है, हम नहीं है । हमें हम क्या हैं , यह समझना है , वहीं हमें सुखी बनायेगा , और यह विचार जीने का सामर्थ्य देगा कि पदार्थ अजर अमर है , और मैं भी वही हूँ , जैसा कि रूमी ने कहा है , “ तुम सागर में बूँद नहीं हो , अपितु बूँद में सागर हो ।
—— शशि महाजन

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