शाम
ज़िन्दगी जैसे थम गयी है घर के एक कोने में वहीं सुबह जगती है शाम तक आंखे जैसे दीवारें ताकती है।अजीब-सी व्यस्तता जो निरंतर कहीं मुझमें समाती जा रही है।सुबह-शाम सब एक-सी मन में जैसे कोई रफ़्त हो।किताबें यकीनन् जीवन को नया आयाम देती है तभी लेखन की प्रेरणा मिलती है।आदमी भय में जीता है उस भय में जिसका स्वरूप ही बदलने लगा है।दो महीने पहले भी कोरोना था और अभी भी है पर लोग अब बाहर निकलने लगे हैं दफ़्तरी दिनचर्या में पुनः लौट गये हैं यद्यपि घर के किसी ख़ास कोने से या दफ़्तरी जमीं पर।बशीर बद्र का अशआर
यकायक ज़हन में कोंध जाता है
اجالے اپنی یادوں کے ہمارے ساتھ رہنے دو
نہ جانے کس گلی میں زندگی کی شام ہو جائے
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
मनोज शर्मा