शाम
अभी अभी शाम ढल गई..
तपिश की ये चादर..
अलसाई सी रात ने ओढ़ ली..
शाम जाते जाते..
थोड़ा अंधेरा भर गई..
शाम का यूँ चुपचाप..
अपने आप में सिमटना..
रात का यूँ पैर पसारना..
शायद रोज़ ही होता है..
रोज अंधेरा चुपचाप..
उजाले को निगल लेता है..
या ये मिलन है..
जिसमें समर्पण के साथ..
उजाला खुद को मिटा कर..
अँधेरे को स्वीकार करता है..
या अंधेरा ही शास्वत है..