शाम वापसी का वादा, कोई कर नहीं सकता
सोने की वरक़ पे नक़्क़ाशा हूँ, नाम उनका,
आड़े वक़्त कभी इसे, बेच भी नहीं सकता।
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इस क़दर लदा हूँ, जाने किसके ख़याल में,
पत्थर भी आसानी से, मुझे सह नहीं सकता।
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मैं बदलना चाह रहा था, ख़ुद को नये साल में,
दिल ने कहा, अब तो वो बदल नहीं सकता।
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रोज़ घर से सड़क पे निकलना तय है, लेकिन,
शाम वापसी का वादा, कोई कर नहीं सकता।
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जमीं आसमां फ़िज़ा कायनात, ख़ुदा ही ख़ुदा,
अफ़सोस कि आदमी, कहीं देख नहीं सकता।