शाम भी ढल गई
गुजर गया ये दिन शाम भी ढल गई
तबियत थी नासाज़ अब जरासुधर गई
ख्वाहिशें थी अधूरी ख्वाब भी अधूरे है
हर बार की कसक हर बार रह गई
चलते हैं राही यहाँ मंजिल की उम्मीद में
किसी ने पा लिया किसी की खो गई
जिंदगी इसे ही कहते होंगे लोग शायद
किसी ने गुजार दी किसी की कट गई
किस किसको ,माफ करे अब” राणाजी”
एक नही जब गलती ,हजारों से हो गई
©प्रताप सिंह ठाकुर”राणाजी”