शाम ढल रही है
कविता –
शीर्षक—- शाम ढल रही है
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ढलता सूरज हवा पश्चिम अब चल रही है,
ज्वाल रश्मियाँ भी मध्यम पड़ रही है,
पूर्ण हुआ अब तो भ्रमण ब्रह्माण्ड का,
लालिमा है सर्वत्र क्योंकि शाम ढल रही है।
दिनभर खेतो में काम करता जो किसान,
बैलों की जोड़ी कन्धे पर हल समझे जो शान,
श्रम की बूंदें भी सूख चली है अब तन पर,
शाम ढलने पर घर चला वह मेहनतवान।
खग कलरव मिश्री मिश्रित लगता है शोर,
सभी उड़ते है अपने अपने नीड़ की ओर,
प्रकृति के नियमों का पालन करते सभी यह,
पेड़ों के झुण्डों में पीहु पीहु करता है मोर।
धीरे धीरे चुपके से जब शाम ढलती है,
कहीं धवल कहीं हल्की पीली चादर पलती है,
दूर क्षितिज मिलन होता धरती और नभ का,
युगों युगों से यही तो रीत यहाँ चलती है।
शीला सिंह बिलासपुर हिमाचल प्रदेश 🙏