शाम ढल गई
लघुकथा .
और शाम ढल गई(पत्रशैली)
प्रिय सखी,
तुम हरदम जानना चाहती थी ना कि हँसते हुये भी मेरी आँखों में अनकही उदासी क्यूँ है?बात करते करते कहीं खो क्यूँ जाती हूँ?मैं हँस कर टाल देती थी।किसे सुनाती ,कौन समझता?
न जाने क्यूँ आज सब बताने का मन किया।सुन..
जीवन में जब आप समर्पित हो जाते हो तो मन में कोई विकलता नहीं होती।पर जिसको समर्पण हुये वो कद्र न करे तो खुद के साथ धोखा ही हुआ न ।एक आस,एक उम्मीद पर वर्षों जीते चले जाना और जब जब अवसर आया स्वप्न पूर्ण होने का तब तब किस्मत खेल खेल गई।हादसे दर हादसे, चोट पर चोट अंदर से खोखला करती गई।मेरे साथही क्यूँ ये प्रश्न हर बार मथता गया।कोई न समझ सका मेरी पीड़ा,तकलीफ।कलम और कोरे कागज माध्यम बने मेरी पीड़ा की अभिव्यक्ति के ।मेरे अनकहे दर्द के साथी।एक सुकून ,राहत महसूस हुई।बढ़ गयी इसी तरफ। और जब यहाँ मुकाम आया तो जैसे किस्मत ताक ही रही थी।वज्रपात…..नहीं जायेगी ..कैसा सम्मान ,क्यूँ है इतनी पढ़ी-लिखी।….हर तरफ से ना उम्मीद ।निराशा …।
ढ़लती शाम अपने साथ चाँद की चाँदनी लाती है।पर लगता है मेरे जीवन की शाम जो ढलने चली है उसमें कोई रोशनी नहीं कभी नहीं होगी।कोई उम्मीद की किरण सूरज के साथ न आयेगी।जाने अब तुमसे कभी मिल भी सकूँगी या नहीं ..
देख तो ..उधर वो शाम ढल रही है।इधर मेरी जिंदगी की शाम भी….
©स्वरचित पाखी,