शान्ति की चाह !
कितनी शांत दिखती है धरती
रहती है सब के पैरों के नीचे
बनती है सब का बिछौना,
यही सोच कहा धरती से,
एक दिन हस कर मैंने…
मुझे मिला ले खुद में, बना ले अपना सा,
भर आगोश कर जा तनिक अपना सा
माटी जरा सी मुस्काई … कहा
दिखती हूँ शांत, लगती हूँ भयाक्रांत
पालती हूँ मगर, अनल उदर में
मुझे से ही होकर गुजरे
तबाही भूमंडल की, भूल गई है क्या तू ?
अबतक के सारे भू कम्पन को
सिहर उठी मन ही मन में, मैं
भय से कांप उठी पकड़ लिया धरती को…
निर्मल स्वक्ष जल कल-कल बह रहा था
मेरे अंतर् से वो बातें कुछ कर रहा था
मैंने कहा जल,
चल अपना सा तू मुझ को कर दे
मुझ में शीतलता जरा सा भर दे,
जल ने कहा… कहाँ हूँ शांत ?
क्या सूनामी पलता नहीं भूजल में
उठा समुद्र से, रौंदते हुए मैदानों से
पहाड़ों को भी पिघलाया था,
कहाँ कुछ भी सजीब-निर्जीब
मुझ से बच पाया था।
दहल गई सुन जल का उत्तर भी।
हवा जो तन-मन को सहला रही थी
स्नेहिल आलिंगन में बहला रही थी
कहा मैंने,अपना वेग मुझ में भी जर दो,
मुझ में भी जरा पंख के लक्षण भर दो।
प्रचंड बेग बन गालो को मेरे थपकाई,
चार कदम पीछे धकेल मुझे वो आई।
कहा, जब प्रचंड बेग में होती हूँ,
मिट्टी-पानी को संग में ढोती हूँ,
छीन लेती निवाला मैं जन जन का
करती नही तरस शकुन के जीवन का
हिला गई मेरे मन के बाहर-भीतर को
सुन हवा के सास्वत उत्तर को।
चाँदनी रात में चाँद को गगन में
लालायित नजरों से देख रही थी,
समझ भावना मेरी बोल पड़ा वो मुझसे,
कोमल हृदय वाली तू न वो देख सकेगी
जिसको तकती हूँ रातों को तू न देख सकेगी
चिथड़े में लिपटे लालो को तू न देख सकेगी
सूखी हड्डी भूखी आँतों को न तू सहेज सकेगी
बिकते देह बच्चियों के, कलंकित बापों के
रिस्ते आँसू को न किसी बिधि तू पोछ सकेगी
किसान-मजदूरों के औरतों के नंगे तन को
अपने हांथों से हाय कैसे तू ढक सकेगी
मैं बिखर गई सुन उत्तर चाँद के मन की…
10-07-2019
…सिद्धार्थ