“शान्ति का उलाहना”
असेव्य देव की तरह,
सूखे पाषाण की,
छाया भी शुष्क,
वायु से खड़खड़ाते पत्ते,
अज्ञात पुष्प की सुगन्धि,
मन्द मन्द लहर,
बलात खींचती नाक को,
सुगन्ध प्रमाणित करती,
जीवन भी चालित,
ऐसी ही अज्ञात,
जीवनी शक्ति से,
शक्ति भी खोजती,
सुनहरे अवसर,
शुद्ध मानवीय प्रेम,
प्रेम डसता नहीं,
नहीं खाता है
अद्वितीय है,
विवेक से परेय,
गंगा सा पवित्र,
यमुना सा मोहभंजक,
उसी प्रेम का प्यासा,
मानव क्या-क्या,
करता नित नए,
विचारों संग,
लिखता कर्म की,
अनसुनी तख्तियाँ,
अनकही तख्तियाँ,
उन्हें कभी सँवार,
न सका वह,
शुद्ध प्रेमी,
क्यों कि था,
शान्ति का उलाहना।
©अभिषेक पाराशर???